श्रीमद भगवद गीता : ३७

यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम्।

तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम् ।।१८-३७।।

 

 

ऐसा वह परमात्मविषयक बुद्धिकी प्रसन्नतासे पैदा होनेवाला जो सुख (सांसारिक आसक्तिके कारण) आरम्भमें विषकी तरह और परिणाममें अमृतकी तरह होता है, वह सुख सात्त्विक कहा गया है। ।। १८-३७।। 

 

भावार्थ:

योग साधना की सिद्धि में कई मुख्य श्लोकों में से एक है।

मनुष्य का सारा जीवन सुख की प्राप्ति में ही निकल जाता हैं।सत्य रूप से जीवन का उद्देश्य है भी सुख की प्राप्ति।

परन्तु विडंबना यह है कि मनुष्य सांसारिक पदार्थों में सुख देखता है और उनको प्राप्त करने में ही जीवन व्यर्थ कर देता है। सांसारिक सुख संयोगजन्य है और केवल कुछ समय के लिए है। और सांसारिक सुख के साथ दुःख जुड़ा है।

वह यह नहीं जान पाता कि सच्चा सुख, परमानन्द की प्राप्ति समता में है जो सांसारिक सुख के त्याग में है। इस सुख को सात्विक सुख कहा गया है।

इसी कारण भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में सर्व प्रथम कहते हैं कि प्रथम अनुभव में इस सात्विक सुख को प्राप्त करना विष को प्राप्त करने के समान प्रतीत होता है।

कारण कि जो सात्त्विक सुख है, वह परोक्ष है अर्थात् उसका अभी अनुभव नहीं हुआ है। अभी तो उस सुखका केवल उद्देश्य बनाया है। जबकि सांसारिक सुख अभी अनुभव में है। इसलिये अनुभवजन्य सुखका त्याग करने में कठिनता आती है और लक्ष्यरूपमें जो सात्त्विक सुख है, उसकी प्राप्तिके लिये किया हुआ रसहीन परिश्रम (अभ्यास) आरम्भ में विष की तरह लगता है।

सांसारिक सुख का त्याग योग साधना है, अभ्यास है जिससे समता की प्राप्ति होती है और सात्विक सुख का अनुभव होता है।

उस सात्त्विक सुखमें अभ्यास से ज्यों-ज्यों रुचि, प्रियता बढ़ती जाती है, त्यों-त्यों परिणाम में दुःखों का नाश होता जाता है और सुख तथा आनन्द बढ़ते जाते हैं।

यह सात्विक सुख का कभी अन्त नहीं होता, निरन्तर बना रहता है। इसलिये भगवान श्रीकृष्ण सात्विक सुख को अमृत के समान कहते है।

 

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