श्रीमद भगवद गीता : ३९

यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः।

निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम् ।।१८-३९।।

 

निद्रा, आलस्य और प्रमादसे उत्पन्न होनेवाला जो सुख आरम्भमें और परिणाममें अपनेको मोहित करनेवाला है, वह सुख तामस कहा गया है। ।। १८-३९।।

 

भावार्थ:

जब राग अत्यधिक बढ़ जाता है, तब वह तमोगुणका रूप धारण कर लेता है। इसी को मोह (मूढता) कहते हैं। मूढता वश मनुष्य को सुख, निद्रा, आलस्य और प्रमाद से प्राप्त होता है।  इस प्रकार का सुख तामसिक सुख है।

तामसी मनुष्य की कार्य को टालने की प्रवृत्ति होती है और इस प्रकार आलस्य में ही वह अपने समय को व्यतीत कर देता है। यही उसका सुख है। ऐसा मनुष्य विचार करने में भी आलसी होता है। इसलिए वह जीवन में यथार्थ निर्णय नहीं ले पाता।

घर, परिवार, शरीर आदिके आवश्यक कामोंको न करना और निठल्ले बैठे रहना प्रमाद है।

 

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