श्रीमद भगवद गीता : ४०

न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः।

सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात्ित्रभिर्गुणैः ।।१८-४०।।

 

 

पृथ्वीमें या स्वर्गमें अथवा देवताओंमें तथा इनके सिवाय और कहीं भी वह ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जो प्रकृतिसे उत्पन्न इन तीनों गुणोंसे रहित हो। ।।१८-४०।।

 

भावार्थ:

उपर्युक्त श्लोक के साथ मनुष्य के व्यक्तित्व पर, पड़ने वाले तीन गुणों के प्रभाव का विवेचन समाप्त होता है।

अनन्त ब्रह्माण्ड में ऐसी कोई जगहा नहीं है, किसी प्रकार का प्राणी- वस्तु नहीं है, जो कि प्रकृति से उत्पन्न इन तीनों गुणों से मुक्त अर्थात् रहित हो। क्रिया, कारक और फल ही जिसका स्वरूप है, ऐसा यह सारा संसार सत्त्व, रज और तम, इन तीनों गुणोंका ही विस्तार है।

प्रकृति और प्रकृतिका कार्य, यह सभी त्रिगुणात्मक और परिवर्तनशील है। इनसे सम्बन्ध जोड़ने से ही बन्धन होता है और इनसे सम्बन्ध विच्छेद करने से ही मुक्ति होती है। प्रकृति से सम्बन्ध जुड़ते ही अहंकार पैदा हो जाता है, जो कि पराधीनता को पैदा करने वाला है।

यह एक विचित्र बात है कि अहंकार में स्वाधीनता मालूम देती है, पर वास्तवमें वह पराधीनता है। कारण कि अहंकार से प्रकृतिजन्य पदार्थों में आसक्ति, कामना आदि पैदा हो जाती है, जिससे पराधीनता में भी स्वाधीनता दीखने लग जाती है। इसलिये प्रकृतिजन्य गुणों से रहित होना आवश्यक है। प्रकृतिजन्य गुणों में रजोगुण और तमोगुण का त्याग करके सत्त्वगुण बढ़ाने की आवश्यकता है।

 

PREVIOUS                                                                                                                                          NEXT

धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष

धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]

Read More

अध्याय