श्रीमद भगवद गीता : ४१

ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परंतप।

कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः ।।१८-४१।

 

 

हे परंतप! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रोंके कर्म स्वभावसे उत्पन्न हुए तीनों गुणोंके द्वारा विभक्त किये गये हैं। ।।१८-४१।।

 

भावार्थ:

मानव समाज में कोई भी दो मनुष्य एक समान नहीं होते। पूर्व के श्लोकों से यह स्पष्ट होता है कि मनुष्य के व्यक्तित्व पर तीन गुणों और संस्कार का प्रभाव होता है।

कार्य करने की योग्यता मनुष्य को उसके स्वयं की प्रकृति (गुण) से प्राप्त होती है। मनुष्य को मनुष्य के गुणों के आधार पर अगर विभाजित किया जाय, और यह देखा जाय कि किस मनुष्य में किस प्रकार का कार्य करने की योग्यता अथवा क्षमता है, तो मनुष्य को मुख्यता चार भागों में विभाजित किया जा सकता है। जिनको वर्ण कहते है। यह वर्ण किया है, यह वर्ण किन गुणों पर आधारित है – का विस्तार से वर्णन अध्याय ४ श्लोक १३ में हुआ है।

अभ्यास और साधना के दुवारा मनुष्य उस प्राप्त योग्यता में प्रखर हो सकता है या किसी अन्य प्रकार के कार्य में कुशलता प्राप्त कर सकता है

अतः मनुष्य को अगर समाजिक व्यवस्था के लिये उनके व्यक्तित्व, सामर्थ्य, प्रतिभा, कार्य करने की क्षमता के आधार पर विभाजन किया जाय तो इन के चार प्रकार होते है। जिनको वर्ण कहते है। यह विभाजन व्यक्ति की श्रेष्ठता या हीनता का मापदण्ड नहीं है। अपितु यह वर्ण, मनुष्य का समाज के प्रति उसके व्यक्तित्व, सामर्थ्य, प्रतिभा, एवं स्वभाव के आधार पर कर्तव्य निर्धारित करता है। समाजिक व्यवस्था, एवं समाज कल्याण के लिये केवल कर्तव्य निर्धारित होते है, अधिकार नहीं।

यह चार वर्ण है ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र।

 

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