श्रीमद भगवद गीता : ४२

शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।

ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ।।१८-४२।।

 

 

मनका निग्रह करना इन्द्रियोंको वशमें करना; धर्मपालनके लिये कष्ट सहना; बाहर-भीतरसे शुद्ध रहना; दूसरोंके अपराधको क्षमा करना; शरीर, मन आदिमें सरलता रखना; वेद, शास्त्र आदिका ज्ञान होना; यज्ञविधिको अनुभवमें लाना; और परमात्मा, वेद आदिमें आस्तिक भाव रखना — ये सब-के-सब ब्राह्मणके स्वाभाविक कर्म हैं। ।।१८-४२।।

 

भावार्थ:

वर्ण में ब्राह्मण वह वर्ग है जिसकी बुद्धि अधिक क्रिया शील है, सक्षम है। किसी भी प्रकार के वैज्ञानिक, शास्त्रों का अध्यन करने वाले, व अन्य व्यवसाय जिसमें बुद्धि का ही कार्य होता है, वह सभी ब्राह्मण वर्ण में आते है।

ब्राह्मण वर्ण के मनुष्य के कार्य समाज कल्याण के लिये होते हैं। पूर्व काल में इस वर्ण के लोग सात्विक विचार वाले होते थे और उनके कार्य भी सात्विक होते थे।

आध्यात्मिक द्रष्टि में उनका आचरण किस प्रकार का होता है, या होना चाहिये, वह इस श्लोक में दिया है।

ध्यान रहे कि यह वर्ण मनुष्य के गुण है, न की कोई जाती अथवा समाजिक व्यवस्था।

मनुष्य अपनी गुणों के आधार पर समाजिक व्यवस्था में अपना योगदान देता है, न कि समाजिक व्यवस्था से गुण निर्धारित होते है। उसी प्रकार गुणों के आधार पर वर्ण कहे गये है न की जन्म के आधार पर वर्ण। जो समाज समाजिक व्यवस्था अथवा जन्म के आधार पर वर्ण निर्धारित करता है वे अज्ञानी है।

 

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