श्रीमद भगवद गीता : ४३

शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्।

दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम् ।।१८-४३।।

 

 

शूरवीरता, तेज, धैर्य, प्रजाके संचालन आदिकी विशेष चतुरता, युद्धमें कभी पीठ न दिखाना, दान करना और शासन करनेका भाव – ये सबकेसब क्षत्रियके स्वाभाविक कर्म हैं। ।।१८-४३।।

 

भावार्थ:

जो मनुष्य साहसी, निर्भीक होते है और अधिक बाहुबल से सम्पन्न होते है, वह क्षत्रिये वर्ण में आते है। समाज एवं राज्य की सुरक्षा करने में उनकी स्वतः ही रूचि है। जिस मनुष्य में क्षत्रिये गुण के साथ ब्राह्मण वर्ण के भी गुण होते है वह शासक बनते है। आज के आधुनिक शासन व्यवस्था में, बाहुबल की आव्यशकता न होने के कारण ब्राह्मण वर्ण भी शाशक होते है।

ध्यान रहे कि यह वर्ण मनुष्य के गुण है, न की कोई जाती अथवा समाजिक व्यवस्था।

मनुष्य अपनी गुणों के आधार पर समाजिक व्यवस्था में अपना योगदान देता है, न कि समाजिक व्यवस्था से गुण निर्धारित होते है। उसी प्रकार गुणों के आधार पर वर्ण कहे गये है न की जन्म के आधार पर वर्ण। जो समाज समाजिक व्यवस्था अथवा जन्म के आधार पर वर्ण निर्धारित करता है वे अज्ञानी है।

 

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