श्रीमद भगवद गीता : ४४

कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्।

परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् ।। १८-४४।।

 

 

खेती करना, गायोंकी रक्षा करना और शुद्ध व्यापार करना, ये सब-के-सब वैश्यके स्वाभाविक कर्म हैं, तथा चारों वर्णोंकी सेवा करना शूद्रका भी स्वाभाविक कर्म है। ।। १८-४४।।

 

भावार्थ:

जो मनुष्य में हस्त कला का गुण होता, समाज की सेवा का भाव होता है, कुछ बाहुबल होता है, वह शूद्र वर्ण में आते है। शूद्र वर्ण के मनुष्य वे सभी कार्य करते (पुनः अपने गुणों के आधार पर) जो समाज को सुघंटित एवं सचारु रूप से चलाने में सहायक हो।

जिन मनुष्यों में प्रकृति एवं अर्थ के ज्ञान में रूचि होती है और बुद्धि पूर्ण होते है, वह वैश्य वर्ण में आते है। वनस्पति उत्पादन एवं व्यापर करना उनका मुख्य कार्य होता है। समाजिक अर्थ व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने के लिये वे शासक के सहायक होते है।

 

PREVIOUS                                                                                                                                          NEXT

धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष

धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]

Read More

अध्याय