श्रीमद भगवद गीता : ४५

स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः।

स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु ।। १८-४५।।

 

 

अपने-अपने कर्ममें तत्परतापूर्वक लगा हुआ मनुष्य सम्यक् सिद्धि-(परमात्मा-)को प्राप्त कर लेता है। अपने कर्ममें लगा हुआ मनुष्य जिस प्रकार सिद्धि को प्राप्त होता है? उस प्रकारको तू मेरेसे सुन। ।। १८-४५।।

 

भावार्थ:

इस प्रकार मनुष्य अपनी रूचि और गुणों (वर्ण) के आधार पर अपना जीवन निर्वह के लिये कार्य निर्धारित करता है, जो उसका स्वधर्म होता है और समाजिक व्यवस्था को बनाये रखने के लिये वह कार्य उसका कर्तव्य भी हो जाता है।

इस श्लोक में भगवान श्री कृष्ण कहते है कि जो मनुष्य अपने स्वधर्म रूपी समाजिक कर्तव्य का तत्परता पूर्वक पालन करता है वह परमात्मा को प्राप्त कर लेता है।

अतः भगवान श्री कृष्ण इस श्लोक में स्पष्ट करते है कि मनुष्य को परमात्मा प्राप्ति के लिये केवल अपने स्वधर्म का पालन तत्परता पूर्वक करने से ही हो जाता है। इस के लिये कर्म सन्यास लेने की आवयश्कता नहीं है।

स्वधर्म का पालन करने से परमात्मा प्राप्ति किस प्रकार होगी इस का वर्णन भगवान श्री कृष्ण आगे करते है।

 

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