श्रीमद भगवद गीता : ४६

यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।

स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः ।। १८-४६।।

 

 

जिस परमात्मा से सम्पूर्ण प्राणियोंकी उत्पत्ति होती है और जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है, उस परमात्माका अपने कर्मके द्वारा पूजन करके मनुष्य सिद्धिको प्राप्त हो जाता है। ।। १८-४६।।

 

भावार्थ:

मनुष्य का समाज के प्रति जो स्वधर्म रूपी कर्तव्य है उसका पालन करना ही इस श्लोक में परमात्मा का पूजन है। भगवद्बुद्धि से निष्काम भाव पूर्वक समाज की सेवा, अपने स्वधर्म के द्वारा करना परमात्मा का पूजन है।

बाल्य अवस्था में अपने स्वभाव (वर्ण) के अनुसार जिस स्वधर्म (कार्य) का चयन कर, मनुष्य उसका अध्यन कर उस कार्य में निपूर्ण प्राप्त करता है उसका ही कर्तव्य रूपसे पालन करना मनुष्य का उदेश्य है।

 

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