श्रीमद भगवद गीता : ४७

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।

स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ।। १८-४७।।

 

 

अच्छी तरहसे अनुष्ठान किये हुए परधर्मसे गुणरहित अपना धर्म श्रेष्ठ है। कारण कि स्वभावसे नियत किये हुए स्वधर्मरूप कर्मको करता हुआ मनुष्य पापको प्राप्त नहीं होता। ।। १८-४७।।

 

भावार्थ:

बाल्य अवस्था में अपने स्वभाव (वर्ण) के अनुसार जिस कार्य का चयन, और उस कार्य में अध्यन (शिक्षा के द्वारा) निपुणता प्राप्त करने पर वह कार्य मनुष्य का स्वधर्म हो जाता है। उस स्वधर्म पालन हेतु, मनुष्य के समक्ष कितना भी घोर-कठिन कार्य कियु न आ जाय, उसको करने से मनुष्य पाप को प्राप्त नहीं होता।

 

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