श्रीमद भगवद गीता : ४८

सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।

सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः ।।१८-४८।।

 

 

हे कुन्तीनन्दन! दोषयुक्त होनेपर भी सहज कर्मका त्याग नहीं करना चाहिये; क्योंकि सम्पूर्ण कर्म धुएँसे अग्निकी तरह किसी-न-किसी दोषसे युक्त हैं। ।।१८-४८।।

 

भावार्थ:

जो कार्य शिक्षा के द्वारा प्राप्त हुए स्वधर्म में नहीं आते, वे कार्य परधर्म है। अतः जो चिकत्सक है, उसका स्वधर्म चिकत्सा करना है। अगर चिकत्सक, खेती का काम करना चाहे तो वह उसका परधर्म है। चिकत्सा करने पर अगर किसी मनुष्य का उपचार न लगने से निधन होता है तो चिकत्सक को वेदना तो होती है परन्तु उस मृत्यु के कारण में भागी होने पर भी चिकत्सक को पाप नहीं लगता। इस के विपरीत मृत्यु की वेदना से बचने के लिये  चिकत्सक अगर खेती का कार्य करने लगे तो वह अपने स्वधर्म रूपी कर्तव्य से विमुख कहलायेगा और पाप का भागी होगा।

कोई भी कार्य किया जाय, वह कार्य किसी के लिये अनुकूल और किसी के लिये प्रतिकूल होता ही है। शिक्षक जब परीक्षा में किसी विद्यार्थी को असफल करता है तो उस विद्यार्थी के लिये वह प्रतिकूल परस्थिति है जो उसको शिक्षक से प्राप्त हुई है। विद्यार्थी की दृष्टि में शिक्षक द्वारा किया गया कार्य दोष पूर्ण हो सकता है, परन्तु अगर शिक्षक ने केवल गुणवत्ता के आधार पर उस विद्यार्थी को असफल किया है और उस कार्य में अपना स्वार्थ अथवा दुवेश नहीं है तो उस कार्य में दोष नहीं है।

परधर्म के दक्षता न होने के कारण वह कार्य प्रकृति के लिये दोष पूर्ण ही है।

अर्जुन युद्ध में स्वजनों को मरने की अपेक्षा भिक्षा मांगना सरल मानता है, श्रेष्ठ मानता है। इसके लिये ही भगवान श्री कृष्ण ने यह श्लोक कहा है।

 

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