श्रीमद भगवद गीता : ४९

असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः।

नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां संन्यासेनाधिगच्छति ।। १८-४९।।

 

 

जिसकी बुद्धि सब जगह आसक्ति रहित है, जिसने शरीर को वश में कर रखा है, जो स्पृहा रहित है, वह सन्यास में स्थित मनुष्य नैष्कर्म्य-सिद्धि को प्राप्त हो जाता है। ।। १८-४९।।

 

भावार्थ:

 

जो मनुष्य पूर्व श्लोकों में वर्णित स्वधर्म का पालन करता है, परन्तु कार्य अथवा प्रकृति पदार्थ, प्राणी से किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं रखता। जो आलस्य, प्रमाद आदि से शरीर के वशीभूत नहीं होता। जो राग-द्वेष, कामना से रहित है, जिसकी इन्द्रिय सयंमित है। ऐसा असक्तबुद्धि, जितात्मा और विगतस्पृह योगी सभी कार्यों को करता हुआ भी स्वतःसिद्ध निष्कर्मता को प्राप्त हो जाता है। निष्कर्मता को प्राप्त होना अथार्त परमात्मा को प्राप्त होना।

 

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