भावार्थ:
यज्ञ, दान और तप रूप कर्म, नित्य, नैमित्तिक, जीविका सम्बन्धी, शरीर सम्बन्धी सभी कार्य आवश्य ही करने चाहिये। कारण कि यह सभी मनुष्य के धर्म रूपी कर्तव्य है।
सृष्टि चक्र को बनाय रखने के लिये जो मनुष्य के कर्तव्य संसार, समाज के प्रति है, उनको करना यज्ञ है। स्वधर्म का पालन करना यज्ञ हैं।
मनुष्य चाहे सांसारिक विषयों में आसक्त हो, या योग आरूढ़ हो, या योग स्थित हो, सभी को यज्ञ, दान और तप रूप कर्म निश्चित रूप से करने चाहिये।
जो मनुष्य सांसारिक विषयों में आसक्त हो, उनकी कामना करता हो, भोग करता हो, तब भी उसको अपने स्वधर्म का पालन करना चाहिये। संसार से प्रपात सामग्री का दान करना चाहिये। तथा समाज हित के लिये किये जाने वाले तप रूप कार्य जिसमें शारीरक और मानसिक कष्ट होता है, उनको भी करना चाहिये।
जो योग आरूढ़ है, उसको भी यह सभी कार्य करने चाहिये। और जो योग स्थित है, वह तो यह सभी कार्य करता ही है।
ऐसा करना आसक्त मनुष्य और योग आरूढ़ साधक के अन्त:करण को पवित्र करने वाले कार्य है। जो योग स्थित है उसको योग स्थित में स्थित रखने में सहायक है।
योग स्थित के लिये यज्ञ (कर्तव्य) करना अनिवार्य है। प्राय मनुष्य यह मान लेते है की योग स्थित साधक को कुछ करना नहीं है।
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]
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