श्रीमद भगवद गीता : ५१

बुद्ध्या विशुद्धया युक्तो धृत्याऽऽत्मानं नियम्य च।

शब्दादीन् विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च ।। १८-५१।।

 

 

जो विशुद्ध (सात्त्विक) बुद्धि से युक्त, धैर्यपूर्वक अन्तःकरण का नियमन करके, शब्दादि विषयों का त्याग करके और राग-द्वेष को छोड़कर। ।। १८-५१।।

 

भावार्थ:

  1. जिसकी बुद्धि परमात्मा प्राप्ति के लिये निश्चित बुद्धि है। अपने उद्देश्य में दृढ़ है। जो सात्विक भाव से युक्त है, उनकी विशुद्ध बुद्धि कहलाती है।
  2. जो इन्द्रियों (शब्दादि) के विषय के प्रति स्थित स्पृहा, प्रियता का त्याग करता है।
  3. संस्कार के कारण इन्द्रियों के विषय में राग-द्वेष होता है, उसका जो त्याग करता है।
  4. इस प्रकार जो धैर्यपूर्वक अन्तःकरण का नियमन करता है।

 

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