श्रीमद भगवद गीता : ५३

अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्।

विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते ।। १८-५३।।

 

वह अहंकार, बल, दर्प, काम, क्रोध और परिग्रह का त्याग करके एवं निर्मम तथा शान्त होकर ब्रह्मप्राप्तिका पात्र हो जाता है। ।। १८-५३।।

 

भावार्थ:

 

पूर्व के दो श्लोकों में जो साधना कही गयी है, उसको करने से साधक अहंकार, बल, दर्प, काम, क्रोध और संग्रह करने की प्रवृति से मुक्त हो जाता है। और इस प्रकार संसारिक वस्तु और शरीर के प्रति ममता-आसक्ति का त्याग होने पर साधक परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है।

इस प्रकार अन्तःकरण का शुद्ध होना, शान्त होना ही परमात्मतत्व की प्राप्ति है।

 

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