श्रीमद भगवद गीता : ५४

ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।

समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम् ।। १८-५४।।

 

 

वह ब्रह्मभूत-अवस्था को प्राप्त प्रसन्न मनवाला साधक न तो किसी के लिये शोक करता है और न किसी प्रकार की चिन्ता करता है। ऐसा सम्पूर्ण प्राणियों में समभाव वाला साधक मेरी पराभक्ति को प्राप्त हो जाता है। ।। १८-५४।।

 

भावार्थ:

जिस प्रकार की साधना करने से, (जिसका वर्णन अध्याय १८ श्लोक ५१ एवं ५२ में हुआ है), साधक परमात्मतत्व को प्राप्त होता है, वह सदैव प्रसन्न चित्त रहता है। परमात्मतत्व को प्राप्त होने के कारण वह किसी के लिये शोक नहीं करता और न ही कार्य को लेकर किसी प्रकार की चिन्ता करता है।

जब संसारिक विषयों और प्राणियों को लेकर न तो शोक है और न ही इच्छा, तब प्रसन्न चित्त साधक सभी प्राणियों में समभाव रखता है। समभाव से युक्त साधक के प्रत्यक्ष कुछ भी कार्य अथवा परिस्थिति आ जाय, वह प्रसन्न चित्त उस कार्य को परमात्मा की इच्छा मान कर तत्परता से करता है। और यह परमात्मा की परम् भक्ति है।

श्रीमद् भगवद्गीता के प्रथम अध्याय में अर्जुन ने सम्बन्धियों से युद्ध को लेकर शोक का विषय उठाया था तथा युद्ध के परिणाम को लेकर चिन्ता थी। उसका उपान्तरण करते हुये भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि जो योग साधना में स्थित हो परमात्मा को प्राप्त कर लेता है, वह परमात्मा की भक्ति (कार्य) करते हुये सभी कार्य अपना कर्तव्य समझ कर तत्परता से करता है।

 

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