श्रीमद भगवद गीता : ५५

भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः।

ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्  ।। १८-५५।।

 

 

उस पराभक्ति से मेरे को, मैं जितना हूँ और जो हूँ — इसको तत्त्वसे जान लेता है तथा मेरे को तत्त्व से जानकर फिर तत्काल मेरे में प्रविष्ट हो जाता है। ।। १८-५५।।

 

भावार्थ:

इस प्रकार जो साधना की सिद्धि से परमात्मतत्व को तत्व से जान लेता है। अर्थात, जो जान लेता है कि

  1. विनाशी-अविनाशी क्या है?
  2. शरीर-आत्मा क्या है?
  3. शरीर-मन-बुद्धि के विकार क्या है?
  4. यज्ञ क्या है?
  5. मनुष्य का धर्म क्या है?
  6. योग क्या है और उसकी सिद्धि किस प्रकार की जाती है?

अध्याय २ से अधयय १८ में जो कुछ भी विषय आये है, वह सब परमात्मतत्व को जानने के विषय है। इस प्रकार तत्व ज्ञान प्राप्त कर जो परमात्मा के लिये संसारिक कार्य करता है, वह परमात्मा में प्रविष्ट हो जाता है। अर्थात परमात्मा का स्वरूप हो जाता है।

स्पष्ट रहे कि पराभक्ति का अर्थ अपने कर्तव्यों को करना है।

 

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