श्रीमद भगवद गीता : ५७

चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्परः।

बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव ।।१८-५७।।

 

 

चित्तसे सम्पूर्ण कर्म मुझमें अर्पण करके, मेरे परायण होकर तथा समताका आश्रय लेकर निरन्तर मुझमें चित्तवाला हो जा। ।।१८-५७।।

 

भावार्थ:

 

युद्ध होने से सम्बन्धियों की मृत्यु की सम्भावना को लेकर अर्जुन को शोक होता है और अर्जुन युद्ध न करने का निश्चय कर लेता है। इस विकट परिस्थिति से अर्जुन को भार निकालने के लिये अत्यन्त ही गूढ़ ज्ञान भगवान श्रीकृष्ण श्रीमद् भगवद्गीता के रूप में अर्जुन को देते हुये अपनी बात अध्याय १८ श्लोक ५६ में करते है।

परन्तु अर्जुन के भाव से ऐसा नहीं लगता है कि वह तत्पर हुआ है।

इसलिये भगवान श्रीकृष्ण एक अन्तिम प्रयास के रूप में अपने को आगे करके पुनः अर्जुन को कहते है।

युद्ध करना धर्म है अथवा अधर्म, सुख दायक है अथवा दुःख दायक, इस का विचार छोड़ कर, जो और जैसे में कहता हूँ, वैसा ही तुम निरन्तर करो। होने वाले सुख-दुःख के लिये समता का आश्रय लो।

 

PREVIOUS                                                                                                                                          NEXT

धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष

धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]

Read More

अध्याय