श्रीमद भगवद गीता : ५८

मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।

अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि ।। १८-५८।।

 

 

मेरे में चित्तवाला होकर तू मेरी कृपा से सम्पूर्ण विघ्नों को तर जायगा और यदि तू अहंकार के कारण मेरी बात नहीं सुनेगा तो तेरा पतन हो जायगा। ।। १८-५८।।

 

भावार्थ:

भगवान् कहते हैं कि जैसा में कहता हूँ, वैसा करने से तू मेरी कृपा से सम्पूर्ण विघ्न, बाधा, शोक, दुःख आदि को तर जायगा। अर्थात् उनको दूर करने के लिये तुझे कुछ भी विचार नहीं करना पड़ेगा।

अध्याय २ श्लोक ८ में अर्जुन स्पष्ट शब्दों में कहते है कि मैं युद्ध नहीं करुगा। श्रीमद् भगवद्गीता के रूप में पूर्ण ज्ञान देने पर भी जब भगवान श्रीकृष्ण देखते है कि अर्जुन की यथा स्थिति बानी हुई है, तब वह चेतावनी देते हुये कहते हैं कि, अगर अहंकार वश तुम मेरी बात नहीं सुनेगा तो तेरा पतन हो जायगा।

जो मनुष्य अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता, धर्म का पालन नहीं करता उसका पतन निश्चित है। अर्जुन जब युद्ध भूमि पर खड़ा है और युद्ध का त्याग करता है, अर्थात अपने कर्तव्य-धर्म का त्याग करता है, तब उसका पतन होना निश्चित है। अध्याय ४ श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को अपना मित्र और सखा बताते है। एक मित्र का दूसरे मित्र के प्रति दायित्व होता है की वह मित्र को पतन की ओर जाने से रोके। इस कारण ही भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को चेतावनी देते है।

 

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