श्रीमद भगवद गीता : ५९

यदहङ्कारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे।

मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति ।। १८-५९।।

 

 

अहंकार का आश्रय लेकर तू जो ऐसा मान रहा है कि मैं युद्ध नहीं करूँगा, तेरा यह निश्चय मिथ्या (झूठा) है; क्योंकि तेरी क्षात्र-प्रकृति तेरे को युद्ध में लगा देगी। ।। १८-५९।।

 

भावार्थ:

 

अध्याय २ श्लोक ७ में अर्जुन भगवान से प्रार्थना करते है कि मैं आपका शिष्य हूँ आपकी शरण में हूँ – मेरा मार्ग दर्शन करे। परन्तु दूसरे ही क्षण अध्याय २ श्लोक ९ में स्पष्ट शब्दों में कह देते है कि “मैं युद्ध नहीं करूँगा”। यह दोनों ही विपरीत भाव है। एक समर्पण का और दूसरा अहंकार का।

भगवान को यह बात अच्छी नहीं लगी। भगवान् मन में सोचते हैं कि अर्जुन पहले तो मेरे शरण होता है और दूसरे पल अहंकार वश अपना निर्णय देता है। इसी बातको लेकर भगवान् को हँसी आ गयी (अध्याय २ श्लोक १०)।

परन्तु अर्जुन पर अत्यधिक कृपा और स्नेह होने के कारण भगवान् उसके कल्याण के लिये उपदेश देना आरम्भ करते है। नहीं तो भगवान् वहीं पर यह कह देते कि जैसा चाहता है, वैसा कर (अध्याय १८ श्लोक ६३)।

अतः भगवान् जब देखते है कि अर्जुन में अहंकार बना हुआ है, तब कहते है कि अर्जुन तुमने मेरी शरण न हो कर जो अहंकार के शरण हो कर, जो युद्ध न करने का निर्णेय लिया है वह तेरा कल्याण भी नहीं करेगा और भवष्यि में तू युद्ध नहीं करेगा ऐसा भी नहीं है।

कारण कि  कारण और क्षत्रिय स्वभाव और अपने गुणों के परवश हुये तुम पुनः भवष्यि में युद्ध में लग जाओगे। अतः यह अहंकार मिथ्या है।

 

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