श्रीमद भगवद गीता : ०६

एतान्यपि तु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा फलानि च।

कर्तव्यानीति मे पार्थ निश्िचतं मतमुत्तमम् ।।१८-०६।।

 

 

हे पार्थ! (पूर्वोक्त यज्ञ, दान और तप) इन कर्मोंको आसक्ति और फलोंका त्याग करके करना चाहिये। यह मेरा निश्चित किया हुआ उत्तम मत है। ।।१८-०६।।

 

भावार्थ:

यह श्लोक संसार में आसक्त और योग आरूढ़ साधक के लिये कहा गया है।

मनुष्य जब यज्ञ, दान और तप रूपी कार्य  करता है तब वह उन कार्यों से अपने सम्बन्ध का त्याग करे। साथ ही यज्ञ, दान और तप से प्राप्त होने वाले फल की कामना का त्याग करे। चाहे फल की कामना इस लोक के लिये हो या अन्य किसी लोक के लिये हो।

अतः पूर्व श्लोक में सभी के लिये यज्ञ, दान और तप रूपी कार्य को निश्चित रूप से करने को कहा है। इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण सपष्ट त्याग कार्यों में आसक्ति (सम्बन्ध) और फल की कामना का कहा है।

अध्याय १८ श्लोक २ में विद्वानों के चार प्रकार के मत बताये गये। परन्तु भगवान श्रीकृष्ण का उत्तम मत है की मनुष्य को यज्ञ, दान और तप रूपी कार्य करने चाहिये और उनमे आसक्ति और फल का त्याग करना चाहिये।

 

PREVIOUS                                                                                                                                          NEXT

धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष

धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]

Read More

अध्याय