भावार्थ:
यह श्लोक संसार में आसक्त और योग आरूढ़ साधक के लिये कहा गया है।
मनुष्य जब यज्ञ, दान और तप रूपी कार्य करता है तब वह उन कार्यों से अपने सम्बन्ध का त्याग करे। साथ ही यज्ञ, दान और तप से प्राप्त होने वाले फल की कामना का त्याग करे। चाहे फल की कामना इस लोक के लिये हो या अन्य किसी लोक के लिये हो।
अतः पूर्व श्लोक में सभी के लिये यज्ञ, दान और तप रूपी कार्य को निश्चित रूप से करने को कहा है। इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण सपष्ट त्याग कार्यों में आसक्ति (सम्बन्ध) और फल की कामना का कहा है।
अध्याय १८ श्लोक २ में विद्वानों के चार प्रकार के मत बताये गये। परन्तु भगवान श्रीकृष्ण का उत्तम मत है की मनुष्य को यज्ञ, दान और तप रूपी कार्य करने चाहिये और उनमे आसक्ति और फल का त्याग करना चाहिये।
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