श्रीमद भगवद गीता : ६०

स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा।

कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोऽपि तत् ।। १८-६०।।

 

 

हे कुन्तीनन्दन! अपने स्वभाव जन्य कर्म से बँधा हुआ तू, मोहके कारण जो नहीं करना चाहता, उसको तू (क्षात्र-प्रकृति के) परवश होकर करेगा। ।। १८-६०।।

 

भावार्थ:

मनुष्य जब शरीर और संसार में आसक्त रहता है, तब मनुष्य का विवेक जागृत नहीं हो पाता और वह मूढ़ता को प्राप्त होता है।

मूढ़ता के परवश हुआ मनुष्य त्रिगुण, संस्कार और वर्ण के प्रभाव में सभी कार्य को करता है। क्योंकि अर्जुन का क्षत्रिय स्वभाव है, इसलिये युद्ध करना उसका स्वभाव है।

इसलिये भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को कहते है कि अभी तो अहंकार और मूढ़ता वश तुम युद्ध नहीं कर रहे हो। परन्तु भविष्य में अपने स्वभाव और मूढ़ता वश युद्ध करोगे।

अध्याय ३ श्लोक ३३ में भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि, सभी प्राणी अपने स्वभाव के अनुसार कार्य करते है। ज्ञानी महापुरुष भी अपने स्वभाव के परवश रहते है और उसकी के अनुसार प्राप्त कर्तव्यों को करते है। इसमें किसी का हठ नहीं चलता। परन्तु अर्जुन को अपने स्वभाव के विपरीत युद्ध न करने का हठ है।

इस श्लोक में ‘स्वभाव’ पद का अर्थ स्वधर्म से है न की राग-द्वेष, क्रोध आदि विकार, विषमताओं से नहीं है। इन सब विकार, विषमताओं (स्वभाव) का त्याग मनुष्य योग साधना से कर सकता है। मनुष्य युवा अवस्था से जिस स्वधर्म का पालन करता है, वह उसकी कार्य करने की प्रकृति (त्रिगुण, और वर्ण) से प्रभावित होती है, और उसको बदला नहीं जा सकता।

 

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