भावार्थ:
हृदय में रहने का अर्थ है कि ईश्वर परमात्मतत्व रूप से सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त है। शरीर स्वयं में एक यंत्र है और उसके अलग-अलग अंग भी यंत्र है। यह सभी यंत्र स्वतः ही कार्य कर रहे है, जिसका कारण इनमें व्याप्त परमात्मतत्व है। शरीर को जो चेतना प्राप्त है, उसके प्रभाव से मनुष्य शरीर में और शरीर से सब कार्य होते है।
बुद्धि भी एक यंत्र है जो परमात्मतत्व के प्रभाव से संचालित हैं। परन्तु बुद्धि मूढ़ता वश शरीर से होने वाले कार्यों का संचालक (ईश्वर) स्वयं को मान लेता है। बुद्धि यह नहीं जान पता कि उसके कार्य चेतना और त्रिगुण के प्रभाव में होते है।
मनुष्य जब अहंकार वश परमात्मा से विमुख हो जाता है, तब उसमें परिच्छिन्नता, पराधीनता, विषमता, अभाव, आदि सभी दोष (विकार) आ जाते हैं। परन्तु जब वह अपने ईश्वर परमात्मा के सम्मुख हो जाता है, उन्हीं की शरण में चला जाता है तब उसके सभी दोष मिट जाते हैं। कारण कि स्वयं (चेतन स्वरूप) में दोष नहीं हैं। दोष तो अहंता (मैं पन) को स्वीकार करने से ही आते हैं।
अतः मनुष्य शरीर रूपी यंत्र से सभी कार्यों को करता है और मानता है कि मैं (अहंता) करता हूँ।
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]
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