श्रीमद भगवद गीता : ६१

ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।

भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया ।। १८-६१।।

 

हे अर्जुन! ईश्वर सम्पूर्ण प्राणियोंके हृदयमें रहता है और अपनी मायासे शरीर रूपी यन्त्र पर आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियों को (उनके स्वभावके अनुसार) भ्रमण कराता रहता है। ।। १८-६१।।

 

भावार्थ:

हृदय में रहने का अर्थ है कि ईश्वर परमात्मतत्व रूप से सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त है। शरीर स्वयं में एक यंत्र है और उसके अलग-अलग अंग भी यंत्र है। यह सभी यंत्र स्वतः ही कार्य कर रहे है, जिसका कारण इनमें व्याप्त परमात्मतत्व है। शरीर को जो चेतना प्राप्त है, उसके प्रभाव से मनुष्य शरीर में और शरीर से सब कार्य होते है।

बुद्धि भी एक यंत्र है जो परमात्मतत्व के प्रभाव से संचालित हैं। परन्तु बुद्धि मूढ़ता वश शरीर से होने वाले कार्यों का संचालक (ईश्वर) स्वयं को मान लेता है। बुद्धि यह नहीं जान पता कि उसके कार्य चेतना और त्रिगुण के प्रभाव में होते है।

मनुष्य जब अहंकार वश परमात्मा से विमुख हो जाता है, तब उसमें परिच्छिन्नता, पराधीनता, विषमता, अभाव, आदि सभी दोष (विकार) आ जाते हैं। परन्तु जब वह अपने ईश्वर परमात्मा के सम्मुख हो जाता है, उन्हीं की शरण में चला जाता है तब उसके सभी दोष मिट जाते हैं। कारण कि स्वयं (चेतन स्वरूप) में दोष नहीं हैं। दोष तो अहंता (मैं पन) को स्वीकार करने से ही आते हैं।

अतः मनुष्य शरीर रूपी यंत्र से सभी कार्यों को करता है और मानता है कि मैं (अहंता) करता हूँ।

 

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