श्रीमद भगवद गीता : ६६

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।

अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ।। १८-६६।।

 

सम्पूर्ण धर्मों का आश्रय छोड़कर तू केवल मेरी शरण में आ जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, चिन्ता मत करो। ।। १८-६६।।  

 

भावार्थ:

इस श्लोक में सर्वधर्म का अर्थ सनातन मनुष्य धर्म से नहीं है। अपितु मनुष्य के अपने बनाये हुए नियम, कृत-अकृत का विचार है। अर्जुन ने वह सब विचारो का वर्णन अध्याय १ श्लोक ३८ से अध्याय १ श्लोक ४६ में किया है। उन विचारो के आधार पर ही अर्जुन ने युद्ध न करने का निर्णेय लिया था।

इसलिये भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि तुम इस विचार को त्याग कर दो कि संसार में क्या करने योग्य है और क्या करने योग्य नहीं है, और मेरे शरण में आ जाओ। क्योंकि तुम मेरे अत्यन्त प्रिय हो, और मैं तुम्हारा हित चाहता हूँ, इसलिये जैसा मैं कहता हूँ वैसा करो।

क्या कार्य शुभ है,क्या अशुभ, इसका विचार त्याग दो। इसलिये जैसा मैं कहता हूँ वैसा करने से तुम सभी पापों से मुक्त हो जाओगे। तुम किसी भी प्रकार का शोक मत करो।

 

 

PREVIOUS                                                                                                                                          NEXT

धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष

धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]

Read More

अध्याय