श्रीमद भगवद गीता : ६७

इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन।

न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति ।। १८-६७।।

 

 

यह सर्वगुह्यतम वचन अतपस्वीको मत कहना; अभक्त को कभी मत कहना; जो सुनना नहीं चाहता, उसको मत कहना; और जो मेरे में दोषदृष्टि करता है, उससे भी मत कहना। ।। १८-६७।।  

 

भावार्थ:

भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि इस प्रकार मेने जो अति गूढ़ वचन तुमसे कहे है, उनकी महत्ता को जानो और उनका पालन करो। क्योंकि तुम तपस्वी हो, मेरे भक्त हो, मेरे में श्रद्धा रखते हो, और तुमने इन विचारों को जानने की इच्छा की थी, इसलिए मेने तुमसे यह सब वचन कहे है।

भविष्य में तुम अगर पुनः इन विचारों को किसी अन्य के सामने व्यक्त करते हो तो इस बात का ध्यान रखना की सुनने वाला:

  1. तपस्वी हो
  2. परमात्मा के प्रति भक्ति भाव रखता हो।
  3. सुनने वाला सुनने की इच्छा रखता हो।
  4. और सुनाने वाले में श्रद्धा भाव रखता हो।

 

 

PREVIOUS                                                                                                                                          NEXT

धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष

धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]

Read More

अध्याय