श्रीमद भगवद गीता : ०७

नियतस्य तु संन्यासः कर्मणो नोपपद्यते।

मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीर्तितः।।१८-०७।।

 

 

नियत कर्मका तो त्याग करना उचित नहीं है। उसका मोहपूर्वक त्याग करना तामस कहा गया है। तुम्हारी कीर्ति को पूर्ण रूपसे नष्ट कर देगा। ।।१८-०७।।

 

भावार्थ:

पूर्व श्लोक में अपना मत प्रस्तुत करने के बाद, इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि जो कार्य स्वतः, परिस्थिति वश प्राप्त हो उनका त्याग कभी भी उचित नहीं है। कारण कि स्वतः और परिस्थिति वश प्राप्त होने वाले कार्य कर्तव्य स्वरूप होते है।

जो मनुष्य संसार के विषयों में आसक्ति होने के कारण, अज्ञानता वश नियत कार्यों का त्याग करता है, वह तामसिक त्याग है, निकृष्ट (तिरस्कृत) है।

अर्जुन युद्ध रूपी नियत कार्य का स्वरूप से त्याग करना चाहते थे। इसलिये भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से स्पष्टता से कहा, कि युद्ध रूपी नियत कार्य का त्याग जो तुम मोह वश कर रहे हो, वह तुम्हारी कीर्ति पूर्ण रूप से नष्ट कर देगा।

नियत कार्यों में प्रतिदिन किये जाने वाले शरीर निर्वाह सम्बन्धी और स्वधर्म सम्बन्धी कार्य भी ले लेने चाहिये।

 

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