श्रीमद भगवद गीता : ७०

अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयोः।

ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः।। १८-७०।।

 

जो मनुष्य हम दोनों के इस धर्ममय संवाद का अध्ययन करके, उसके अनुरूप यज्ञ करना ज्ञानयज्ञ रूप है – ऐसा मेरा मत है। ।। १८-७०।।

 

भावार्थ:

भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच में जो संवाद धर्ममय है। कारण है कि इस संवाद में इन-इन विषयों पर चर्चा हुई:

  1. मनुष्य धर्म क्या है।
  2. मनुष्य धर्म का पालन क्यों करना चाहिये।
  3. मनुष्य धर्म का पालन किस प्रकार हो।
  4. मनुष्य धर्म का पालन करने से क्या लाभ होता है।
  5. और न करने का क्या दुष परिणाम है।

इस प्रकार धर्म को जान कर जब धर्म का पालन किया जाता है, तब वह यज्ञ कहलाता है।

साथ ही यह संवाद ज्ञानयज्ञ स्वरूप है। इस का कारण है की, इस संवाद में परमात्मतत्व ज्ञान की चर्चा भी हुई, जिस को जान कर मनुष्य के कार्य अहंता रहित हो जाते है।

अध्याय ४ श्लोक २४ से अध्याय ४ श्लोक ३३ तक में अनेक प्रकार के यज्ञों का वर्णन हुआ है। उन सभी यज्ञों में ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ है, इसका वर्णन अध्याय ४ श्लोक ३३ में हुआ है। तत्व ज्ञान को प्राप्त करने पर मनुष्य के सभी कार्य पाप रहित हो जाते है और मोक्ष को प्राप्त होता है।

 

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