श्रीमद भगवद गीता : ७१

श्रद्धावाननसूयश्च श्रृणुयादपि यो नरः।

सोऽपि मुक्तः शुभाँल्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम् ।। १८-७१।।

 

श्रद्धावान् और दोषदृष्टि से रहित जो मनुष्य इस गीता-ग्रन्थ को सुन कर पालन करेगा, वह सम्पूर्ण पापों से मुक्त होकर पुण्यकारियों के शुभ लोकों को प्राप्त हो जायगा। ।। १८-७१।।

 

भावार्थ:

यह महत्वपूर्ण एवं अनिवार्य है की गीता-ग्रन्थ को श्रद्धा भाव से और दोषदृष्टि से रहित हो कर सुनना अथवा पढ़ना चाहिये।

और इस प्रकार जो मनुष्य अपना जीवन व्यापन गीता-ग्रन्थ का अनुसरण करते हुए करेगा वह सभी पापों से मुक्त हो जायेगा।

मनुष्य पाप और पुण्य से तभी मुक्त है जब उसके सभी कार्य समाज कल्याण के लिये होते है, सांसारिक पदार्थों का भोग नहीं होता और कार्यों में अहंता नहीं होती।

पापों से मुक्त होकर तुम्हारा वास उस शुभ लोक में होगा जहाँ सभी पुण्यकारियों का वास होता है।

इस का अर्थ यह भी लेना चाहिये की जब सभी पुण्य कर्म करते है, तब सम्पूर्ण समाज शुभ लोक में परिवर्तित को जाता है।

 

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