श्रीमद भगवद गीता : ७२

कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा।

कच्चिदज्ञानसंमोहः प्रनष्टस्ते धनञ्जय।। १८-७२।।

 

हे पृथानन्दन! क्या तुमने एकाग्र-चित्तसे इसको सुना? और हे धनञ्जय ! क्या तुम्हारा अज्ञानसे उत्पन्न मोह नष्ट हुआ? ।। १८-७२।।

 

भावार्थ:

अर्जुन युद्ध करने को पाप मानते है, इसलिए उन्होंने युद्ध का त्याग किया था (अध्याय १ श्लोक ४७)। पूर्व श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण  कहते है कि जो श्रद्धा भाव से और दोषदृष्टि से रहित होकर संवाद को सुनता है, उसके सभी कार्य पाप रहित हो जाते है। मनुष्य में तत्व ज्ञान का अभाव होने से उसके कार्य पाप और पुण्य रूप होते है। परन्तु गीता-ग्रन्ध को ग्रहण करने से वह अज्ञान समाप्त हो जाता है।

अर्जुन ने जो सुना वह श्रद्धा भाव से और दोषदृष्टि रहित होकर सुना है, ऐसा मान कर भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से प्रश्न करते है कि क्या तुमने एकाग्र-चित्त से सुना? और जो अज्ञानता वश मूढ़ता थी, वह नष्ट हुई क्या?

कारण की अगर अर्जुन ने एकाग्र-चित्त होकर सुना है तो मूढ़ता नष्ट होना निश्चित है।

इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से प्रश्न करते है कि क्या तुम युद्ध करने के लिये त्यार हो?

 

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