श्रीमद भगवद गीता : ०८

दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्त्यजेत्।

स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत् ।।१८-०८।।

 

 

समस्त कर्म दुःखरूप ही हैं? ऐसा मानकर जो कोई शारीरिक क्लेशके भयसे उनका त्याग कर दे, तो वह, (ऐसा) राजस त्याग करके भी त्यागका मोक्षरूप फल नहीं पाता। ।।१८-०८।।

 

भावार्थ:

दि कोई मनुष्य अपने कर्तव्यों को दुखदायक समझकर काया क्लेश के भय से त्याग दे, तो उसका त्याग राजस कहा जायेगा। राजस मनुष्यको शास्त्रमर्यादा और लोकमर्यादाके अनुसार चलनेसे शरीरमें क्लेश अर्थात् परिश्रमका अनुभव होता है। भोग विलास, अपने सुख-आराम के लिये कर्तव्यों का त्याग राजस त्याग है।

कामना पूर्ति के लिये किये जाने वाले कार्यों का त्याग (अथार्त कामना का त्याग) अन्तःकरण में शांति प्रदान  करने वाला है। परन्तु भोग विलास, काया क्लेश के भय से प्राप्त कर्तव्यों का त्याग अन्तःकरण में शांति प्रदान नहीं करता।

 

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