श्रीमद भगवद गीता : १४

अध्याय २ श्लोक १४

 

मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः।

आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत।।२-१४।।

 

हे कुन्तीपुत्र! इन्द्रियों के विषय (संसार) सुख और दुःख देने वाले तो हैं। परन्तु शीत और उष्ण के समान आने-जाने वाले हैं। हे भारत! इन अनित्य विषयों-परिस्थिति को तुम महत्व मत दो। ।।२-१४।।

 

भावार्थ:

अध्याय २ श्लोक १४- भगवान श्रीकृष्ण कहते है:

इन्द्रिय एक यन्त्र अथवा उपकरण हैं, और संसार उस यन्त्र के विषय। मनुष्य को संसार, संसार में हो रही क्रिया का जो ज्ञान होता है, वह इन्द्रिय रूपी यन्त्र से ही होता है। इसलिये इस श्लोक में संसार को इन्द्रिय रूपी यन्त्र का विषय (मात्रास्पर्शाः) कहा गया है।

भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि मनुष्य को इन्द्रियों के विषय (संसार) से सुख-दुःख तो होता है। परन्तु यह सुख-दुःख, शीत-उष्ण के समान, आने-जाने वाले है। जिस प्रकार प्रकृति में कभी शीत होती है और कभी उष्ण। उसी प्रकार मनुष्य को कभी सुख की अनुभूति होती है और कभी दुःख की।

इसका कारण है, इन्द्रियों के विषय (प्राणी-परिस्थिति) का अनित्य होना। अर्थात उनका अस्तित्व संसार में कुछ समय के लिये होना।

साथ ही मनुष्य एक विषय को लेकर कुछ ही समय के लिए सुखी-दुखी होता है। कारण कि, जीवन के अन्य विषय मनुष्य के सुख-दुःख रूपी भाव को परिवर्तित कर देते है।

अतः भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि इस अनित्य प्राणी-परिस्थिति को तुम महत्व मत दो। अर्थात उनके होने अथवा न होने से सुखी-दुखी मत हो।

श्लोक के सन्दर्भ मे:

अध्याय २ श्लोक ८ में वर्णित, अर्जुन का यह कहना कि “इन्द्रियों को सुखाने वाला मेरा जो शोक है, वह दूर हो जाय – ऐसा मैं नहीं देखता हूँ” – के उत्तर में भगवान श्रीकृष्ण ने यह श्लोक कहा है।

भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि जिन लोगो के लिये तुम इतना शोक कर रहे हो, इतना विस्मित हो रहे हो, वह अनन्त काल तक रहने वाले नहीं है।

 

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