श्रीमद भगवद गीता : १६

अध्याय २ श्लोक १६

 

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।

उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः।।२-१६।।

 

असत् का तो भाव (सत्ता) विधमान नहीं है और सत् का कभी अभाव विधमान नहीं है। तत्वदर्शी महापुरषों ने दोनों ही तत्व को देखा अथार्त अनुभव किया है। ||२-१६||

 

भावार्थ:

अध्याय २ श्लोक १६ – भगवान् श्रीकृष्ण कहते है:

भाव और अभाव अन्तःकरण की वृति है।

सत्: – परमात्मतत्व अव्यय, अविनाशी, शाश्वत, होने से सत् हैं। सत् का अर्थ सनातन है न कि सत्य। परमात्मतत्व जिससे सारा संसांर व्यप्त है, जो इस सृष्टि का कारण है, वह सनातन है अथार्थ सत् है।

असत् – प्रकृति में हर पदार्थ परिवर्तनशील, विनाशशील और अनित्य है। क्योंकि प्रकृति में कोई भी पदार्थ शाश्वत नहीं हैं इसलिय प्रकृति को असत् कहा गया हैं। असत् का अभाव निरंतर बना रहता हैं।

शरीर उत्पत्ति के पहले भी नहीं था, मरने के बाद भी नहीं रहेगा और वर्तमान में भी इसका क्षण-प्रतिक्षण अभाव हो रहा है। अतः यह असत् है।

सत् का कभी अभाव नहीं होता। असत् का अभाव निरंतर बना रहता हैं। मनुष्य जब सत् के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ता है, तब उस सम्बन्ध का कभी आभाव नहीं होता। परन्तु मनुष्य जब असत् (संसार) के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ता है, तब असत् का अभाव निरंतर बना रहता हैं।

सत्-असत्, दोनों का ही मूल तत्व सत् है। असत् वस्तु का मूल तत्त्व भी सत् है और सत् मूल तत्व होने के कारण सत् ही है।

वस्तुओं में होने वाले परिवर्तनों के लिये किसी एक अविकारी अधिष्ठान की आवश्यकता है। शरीर मन और बुद्धि के स्तर पर होने वाले असंख्य अनुभवों को एक सूत्र में धारण कर एक पूर्ण जीवन का अनुभव कराने के लिये निश्चय ही एक नित्य अपरिर्तनशील सत् तत्व का अधिष्ठान आवश्यक है। वह अधिष्ठान परमात्मतत्व ही है।

इस परमात्मतत्व को अनुभव करने वाले तत्त्वदर्शी असत् के लिये मोह और शोक नहीं करते। कारण कि असत् का अन्त निश्चित है। एक अवस्था का नाश दूसरी अवस्था की उत्पत्ति है।

श्लोक के सन्दर्भ मे:

अर्जुन को शोक था की युद्ध में सम्बन्धी मृत्यु को प्राप्त हो जायगे। इस पर भगवान कहते हैं कि हे अर्जुन अगर तुम्हारा ऐसा मानना है की युद्ध न करने से, ये लोग नहीं मरेंगे, तब यह तुम्हारा अज्ञान है।

असत् तो मरेगा ही और निरन्तर मर ही रहा है, परन्तु इसमें जो सत्रूपसे है उसका कभी अभाव नहीं होगा। इसलिये तुम्हे शोक नहीं करना चाहिये।

 

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