श्रीमद भगवद गीता : ११

अध्याय २ श्लोक ११

श्री भगवानुवाच

अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।

गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः।। २-११।।

 

श्री भगवान् ने कहा: जिनके लिये शोक करना उचित नहीं है, उनके लिये तुम शोक करते हो और प्रज्ञावानों के से वचनों को कहते हो। जो पण्डित होते है, वह मृत और जीवित दोनों के लिये शोक नहीं करते। ||२-११||

 

भावार्थ:

अध्याय २ श्लोक ११ – भगवान श्रीकृष्ण कहते है:

अध्याय १ श्लोक ३६ से अध्याय १ श्लोक ४५ और अध्याय २ श्लोक ४ से श्लोक ९ में अर्जुन अनेक प्रकार से उचित-अनुचित विचारों का वर्णन करते है और युद्ध न करने का निर्णय लेते हैं।

भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि, तुम्हारे वचनों (युद्ध न करने के लिये उचित-अनुचित का तर्क) से तो लगता है कि तुम प्रज्ञावान हो। परन्तु तुम्हारे शोक करने से स्पष्ट होता है की तुम्हरा निर्णय विषयों की अज्ञानता के कारण है।

जिनको पूर्ण ज्ञान (पण्डित) होता है, वह उनके लिये शोक नहीं करते, जो आज जीवित है और भविष्य में मृत्यु को प्राप्त होने वाले है।

पण्डित, मृत्यु को प्राप्त हुये व्यक्ति के लिये शोक क्यों नहीं करता, इसके कारण को समझाने के लिये भगवान श्रीकृष्ण ने सम्पूर्ण श्रीमद् भगवद् गीता को कहा है।

श्लोक के सन्दर्भ मे:

भगवान श्रीकृष्ण ने इस श्लोक में २ पदों का प्रयोग किया है – प्रज्ञ और पण्डित।

प्रज्ञ

संसार में असीमित रूप से विषय है, जिनको जाना जा सकता है। और इस प्रकार अनेक विषयों को जानना ज्ञान प्राप्त करना है। मनुष्य भौतिक एवं सामाजिक विषयों को ग्रहण कर, उसके ज्ञान के आधार पर उचित-अनुचित का विचार कर निर्णय लेता है। उचित-अनुचित का विचार कर निर्णय लेने का कार्य प्रज्ञा का है। जो मनुष्य प्रखरता से प्रज्ञा का उपयोग करता है, वह प्रज्ञावान कहलाता है।

पण्डित

परन्तु, अध्याय १३ श्लोक ११ में भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि अध्यात्म के विषय में जो ज्ञान है, क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ (परमात्मतत्व) का जो ज्ञान है वह ही मूल रूप से जानने योग्य विषय है। परमात्मतत्व, सत-असत के ज्ञान को ग्रहण करना और अनुभव में लाना ही पूर्ण ज्ञान है।

मनुष्य जब पूर्ण ज्ञान को प्राप्त कर, उचित-अनुचित का विचार करता है और संसार के कल्याण के लिये निर्णय लेता है। तब वह निर्णय विवेक पूर्ण कहलाता है। जिस मनुष्य के विवेक पूर्ण कार्य होते है, वह पण्डित कहलाता है।

अज्ञान

अध्यात्म के विषय में ज्ञान न होने पर, परमात्मतत्व का ज्ञान न होने पर, संसार के अन्य सभी ज्ञान, अज्ञान के सामान है। कारण की संसारिक विषयों का ज्ञान संसारिक कार्यों में तो सहायक हो सकता है। परन्तु इस ज्ञान को प्राप्त पर मनुष्य अपने कल्याण के विषय में उचित निर्णय नहीं ले सकता। अर्थात उसका निर्णय विवेक हीन होगा।

मनुष्य जिस प्रकार का ज्ञान प्राप्त करता है, उसी के आधार पर प्रज्ञ अपना कार्य करती है।

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