भावार्थ:
अध्याय २ श्लोक १३ – भगवान श्रीकृष्ण कहते है:
‘देहधारिके इस मनुष्य शरीरमें’ का अर्थ है कि शरीरी अलग है और शरीर अलग है।
देहधारि (शरीरी, चेतनतत्व) के इस मनुष्य शरीर की उत्पति बीज रूप से होती है, और उसमे परिवर्तन होना गर्भ में ही आरम्भ हो जाता है। गर्भ से बहार आने पर हम शरीर का जन्म होना कहते है और यह अवस्था, बाल्यावस्था होती हैं। बाल्यावस्था मे परिवर्तन होकर मनुष्य युवावस्था को धारण करता है। युवावस्था से परिवर्तन होकर वृद्धावस्था आ जाती है। इस के उपरान्त देह में परिवर्तन होने की शमता का अन्त, अर्थात देह का अन्त (देहांत) हो जाता हैं।
तात्पर्य यह है कि, शरीर में कभी भी एक अवस्था नहीं रहती। उसमें निरन्तर परिवर्तन होता रहता है। परन्तु शरीर में बालपन आदि अवस्थाओं का जो परिवर्तन है, वह परिवर्तन शरीरी (चेतनतत्त्व) में नहीं है।
जिस प्रकार स्थूलशरीर में बालक से युवा एवं युवा से बूढ़ा हो जाना अवस्थाओं का परिवर्तन है। और मनुष्य इन अवस्थाओं के परिवर्तन को लेकर शोक नहीं करता। उसी प्रकार शरीर का अन्त (अवस्था परिवर्तन) होने पर शोक करना नहीं बनता।
कारण कि जिसमें निरन्तर परिवर्तन हो रहा है, उसके लिये शोक किस लिये करना? शोक न करने का कारण यह भी है की शरीर का अन्त होने पर भी शरीरी का अन्त नहीं होता।
अतः भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि धीर मनुष्य इस शरीर के परिवर्तन से मोहित नहीं होते। क्योंकि जो देहधारी (शरीरी, चेतनतत्व) हैं, उस में कोई परिवर्तन नहीं आता और देह के अन्त होने पर भी देही की सत्ता बनी रहती है।
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