श्रीमद भगवद गीता : १५

अध्याय २ श्लोक १५

 

यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।

समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते। ।।२-१५।।

 

पुरुषों में श्रेष्ठ पुरुष को अनित्य विषय व्यथित नहीं करते। जो धीर पुरुष सुख-दुःख में सम भाव रहता है, वह अमृतत्व को प्राप्त हो जाता है। ।।२-१५।।

 

भावार्थ:

अध्याय २ श्लोक १५ – भगवान् श्रीकृष्ण कहते है:

भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते है कि तुम पुरुषों में श्रेष्ठ है। और पुरुषों में श्रेष्ठ संसार के अनित्य विषयों से व्यथित नहीं होता। अतः तुम को भी व्यथित नहीं होना चाहिये।

भगवान् श्रीकृष्ण आगे कहते है कि अर्जुन तुम धीर पुरुष हो। अतः तुम सुख-दुःख में सम भाव रहो। कारण की जो धीर पुरुष सुख-दुःख में सम भाव रहता है, उसको उस आनन्द का अनुभव होता है जो नित्य रहने वाला है।

श्लोक के सन्दर्भ मे:

इस श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण समता एवं अमृतत्व पद का प्रयोग करते है।

पूर्व श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण कहते है कि जिन विषयों के कारण सुख-दुःख होता है, वह अनित्य है। इसलिये सुख-दुःख आने जाने वाले है।

साथ ही सुख-दुःख का भाव भी अनित्य है। अर्थात एक विषय को लेकर मनुष्य अधिक समय तक सुखी-दुखी नहीं हो सकता। उसका भाव बदल जाता है।

इस के विपरीत सुख-दुःख में सम भाव एक ऐसा भाव है जो नित्य रहता है, बदलता नहीं। अर्थात वह अमृत के समान है, जिसका अन्त नहीं है।

 

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