श्रीमद भगवद गीता : १७

अध्याय २ श्लोक १७

 

अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्।

विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित् कर्तुमर्हति।।२-१७।।

अविनाशी तो उस तत्व को जान, जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है। इस अविनाशी का नाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है। ||२-१७||

 

भावार्थ:

अध्याय २ श्लोक १७ – भगवान् श्रीकृष्ण कहते है:

पूर्व श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण कहते है कि परमात्मतत्व सनातन है। अर्थात आदि काल से है, अविनाशी है। अब इस श्लोक में कहते है कि यह अविनाशी परमात्मतत्व सम्पूर्ण संसार में व्याप्त है।

यह न इन सम्बन्धियों में, तुझमें, मुझमें है, अपितु समस्त प्राणियों में व्याप्त है। इसकी व्यापकता केवल प्राणीओं तक सीमित नहीं है। यह  समस्त ब्रहमांड में समान रूप से व्याप्त है।

अतः इस परमात्मतत्व का नाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है।

श्लोक के सन्दर्भ मे:

अर्जुन का भाव था की, उसके मारने से सभी सम्बन्धी मारे जायेगे। इस पर भगवान् श्रीकृष्ण कहते है कि जो मरेगा वह शरीर है। परन्तु शरीर का जो मूल तत्व (परमात्मतत्व, शरीरी) है, उसका नाश करने का समर्थ तुममे क्या संसार में किसी में नहीं है।

 

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