भावार्थ:
अध्याय २ श्लोक १८
इस श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण परमात्मतत्व के दो अन्य गुणों का वर्णन करते है।
भगवान् श्रीकृष्ण कहते है कि, ऐसा नहीं की परमात्मतत्व (शरीरी) का नाश केवल वर्तमान में नहीं किया जा सकता। परमात्मतत्व का नाश न भूतकाल में हुआ है और न भविष्य में हो सकता है। यह नित्य-निरन्तर अविनाशी है। इस के विपरीत देह का अन्त नित्य-निरन्तर होता रहा है।
परमात्मतत्व अप्रमेय है। अर्थात इसको बुद्धि और इन्द्रियाँ के द्वारा प्रमाणित (जाना) नहीं किया जा सकता।
सम्पूर्ण संसार में जितने भी प्राणी हैं, वे सभी अन्त वाले कहे गये हैं। उन प्राणीओं के देह जो देखने में आते हैं, ये सब-के-सब नाशवान् हैं। परन्तु इन देह में व्याप्त परमात्मतत्व, जो देह के होने का कारण है, वह परमात्मतत्व ‘नित्यस्य’, ‘अप्रमेय’, ‘अनाशिनः’ है।
ये देह जो देखने में आते है, उसका विनाश निश्चित है। अतः हे अर्जुन जिन सम्बन्धियों की मृत्यु का तुम कारण बनना नहीं चहता, उनका अन्त निश्चित है। इसलिये तुम युद्ध करो।
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