भावार्थ:
पूर्व श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण, अर्जुन को युद्ध करने को कहते है। तत्पश्चात् इस श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण स्पष्ट रूप से कहते है कि यह तुम्हारी बुद्धि की अज्ञानता है, जो तुम स्वयं को मारने वाला मानते हो।
भगवान् श्रीकृष्ण कहते है कि हे अर्जुन तुम स्वयं को जो शरीर मानते हो, तुम वह शरीर नहीं हो। जो तुम “स्वयं” हो, वह शरीरी है, शरीर नहीं। और शरीरी किसी को मरता नहीं। अर्थात शरीरी में कोई क्रिया नहीं है।
शरीरी (परमात्मतत्व) मरता नहीं।
इस वाक्य से भगवान् श्रीकृष्ण शरीरी के अविनाशी गुण को पुनः व्यक्त करते है। अतः परमात्मतत्व नित्य, अविनाशी होने से न तो स्वयं मरती है और न ही वह अन्यों के द्वारा मारी जा सकती है।
श्लोक के सन्दर्भ मे:
जब मनुष्य यह मानता है कि “मैं मारने वाला हूँ”। तो इस भाव में ‘मैं” शब्द अन्तःकरण में शरीर, मन, बुद्धि के प्रति ममता और अहंकार की वृति है। इस अहंकारी वृति के कारण ही बुद्धि नहीं जान पाती के इस शरीर, मन, बुद्धि का आधार आत्मस्वरूप “मैं” है, जो इनका प्रकाशक है।
इसका पूर्ण ज्ञान श्रीमद भगवद गीता के आगे के भागों में विस्तार से दिया है।
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