भावार्थ:
अध्याय २ श्लोक २० – भगवान् श्रीकृष्ण कहते है:
जैसे शरीर का उत्पन्न होता है, ऐसे यह शरीरी कभी भी, किसी भी समय उत्पन्न नहीं होता।
शरीर-प्राण का वियोग (‘म्रियते’) शरीर में होता है। परन्तु शरीरी में संयोग-वियोग दोनों ही नहीं होते। यह ज्यों-का-त्यों ही रहता है। अतः शरीरी का मरना होता ही नहीं।
मनुष्य के पैदा होने पर उसकी सत्त्ता दिखती है, और मृत्यु होने पर उसकी सत्त्ता नहीं दिखती। परन्तु शरीरी की सत्त्ता सदैव विध्यमान रहती है परन्तु दिखती नहीं।
इस शरीरी का कभी जन्म नहीं होता। इसलिये इसे जन्म रहित कहा गया है।
यह शरीरी नित्य-निरन्तर रहने वाला है; अतः इसका कभी अपक्षय नहीं होता। अपक्षय तो अनित्य वस्तुमें होता है, जो कि निरन्तर रहनेवाली नहीं है। जैसे, आधी उम्र बीतनेपर शरीर घटने लगता है, बल क्षीण होने लगता है, इन्द्रियोंकी शक्ति कम होने लगती है। इस प्रकार शरीर, इन्द्रियाँ, अन्तःकरण आदिका तो अपक्षय होता है, पर शरीरी का अपक्षय नहीं होता। यह नित्य-तत्त्व निरन्तर एकरूप, एकरस रहनेवाला है। इसमें अवस्था का परिवर्तन नहीं होता।
यह अविनाशी तत्त्व अनादि है। शरीर का नाश होने पर भी इस अविनाशी शरीरी का नाश नहीं होता।
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