भावार्थ:
अध्याय २ श्लोक २४ – भगवान् श्रीकृष्ण कहते है:
‘अच्छेद्योऽयम्‘
शस्त्र के द्वारा पदार्थ को काटने से उसके आकार में परिवर्तन होता है, परन्तु उस पदार्थ का जो मूल तत्व है, उसमें परिवर्तन नहीं होता। लोहे को काटने पर, उसके हर भाग का मूल तत्व लोहा ही रहता है उसमें कोई परिवर्तन नहीं आता। हर पदार्थ के आकार के साथ उसकी एक सीमा होती है। उस सीमा के बहार उस पदार्थ का अस्तित्व नहीं रहता। परन्तु परमात्मतत्व का कोई भी आकार और सीमा न होने के कारण उसको कटा नहीं जा सकता।
‘अदाह्योऽयम्’
संसार में ऐसी बहुत सी वस्तु है, जिनको जलाया नहीं जा सकता। परन्तु जिन वस्तुओं को जलाया जा सकता है, जलने के बाद, उनका जो मूल सूक्ष्म तत्व है, गुण है उसमें परिवर्तन आ जाता है। परन्तु परमात्मतत्व सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतम होने के कारण उसमें कोई परिवर्तन नहीं आता। परमात्मतत्व अग्नि का भी कारण होने के कारण जलाया नहीं जा सकता।
‘अक्लेद्यः’
वस्तु को गीला करने पर, उस वस्तु में जल और उसके गुण समाहित हो जाते है। परन्तु परमात्मतत्व में अन्य कोई वस्तु समाहित नहीं हो सकती। कारण कि परमात्मतत्व ही उस वस्तु का अस्तित्व है, मूल तत्व है। परमात्मतत्व ही उस वस्तु में ओत-पोत है, व्याप्त है। वस्तु की परमात्मतत्व से कोई अलग सत्ता नहीं है। परमात्मतत्व में अन्य किसी वस्तु का गुण समाहित नहीं हो सकता। कारण की वह निर्गुण है।
‘अशोष्यः’
वायुसे जिस प्रकार वस्तु को सुखाया जा सकता है। अथार्त जल को वस्तु में से निकाला जा सकता है। परन्तु परमात्मतत्व में से कोई अन्य वस्तु निकाली नहीं जा सकती। कारण कि, परमात्मतत्व, वस्तु का अस्तित्व है। वस्तु में परमात्मतत्व नहीं तो वस्तु भी नहीं। परन्तु वस्तु के न होने पर भी परमात्मतत्व है। अतः वस्तु की परमात्मतत्व से कोई अलग सत्ता नहीं है। जिस प्रकार परमात्मतत्व में कोई गुण समाहित नहीं हो सकता, उसी प्रकार परमात्मतत्व में से कोई गुण निकला नहीं जा सकता।
वस्तु को नाश करने अथवा विकार लाने वाली प्रक्रिया से परमात्मतत्व पर कोई प्रभाव क्यों नहीं होता, ऐसा बताने के बाद, अब भगवान श्री कृष्ण परमात्मतत्व के अन्य गुणों का वर्णन करते है।
‘नित्यः’
यह देही नित्य निरन्तर रहने वाली है। नित्य निरन्तर रहने का अर्थ है कि परमात्मतत्व के लिये न भूत काल है न भविष्य काल। केवल वर्तमान ही है।
‘सर्वगतः’
नित्य निरन्तर रहने के साथ परमात्मतत्व सम्पूर्ण ब्रह्मांड में और ब्रह्मांड के सभी पदार्थों में समान रूप से व्याप्त है, विराजमान है।
‘अचलः’
परमात्मतत्व स्थिर है, और उसमें आने-जाने की क्रिया नहीं है।
‘स्थाणुः’
परमात्मतत्व एक स्थान पर स्थित हुआ हिलता भी नहीं है।
‘सनातनः’
परमात्मतत्व की न कभी (भूत काल) में उत्त्पति हुई है और न कभी भविष्य से इसका अन्त है।
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]
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