श्रीमद भगवद गीता : २५

अध्याय २ श्लोक २५

 

अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते।

तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि।।२-२५।।

 

यह आत्मा अव्यक्त (प्रत्यक्ष नहीं दीखता), अचिन्त्य (यह चिन्तनका विषय नहीं है) और अविकारी (निर्विकार) कहा जाता है। अतः इस आत्मा को इस प्रकार जानकर तुमको शोक करना उचित नहीं है। ||२-२५ ||

भावार्थ:

अध्याय २ श्लोक २५ – भगवान् श्रीकृष्ण कहते है:

इन्द्रियगोचर वस्तु को व्यक्त किया जा सकता है। परन्तु परमात्मतत्व इन्द्रियों से परे का विषय होनेके कारण व्यक्त नहीं  किया जा सकता।

जो पदार्थ इन्द्रियगोचर होता है वही चिन्तन का विषय होता है। यह परमात्मतत्व इन्द्रियगोचर न होने से अचिन्त्य है।

परमात्मतत्व को अविकारी (विकार-रहित) कहा जाता है अर्थात् इसमें कभी किञ्चिन्मात्र भी परिवर्तन नहीं होता। सबका कारण प्रकृति है और उस कारणभूत प्रकृतिमें भी विकृति होती है। परन्तु परमात्मतत्व में किसी प्रकारकी विकृति नहीं होती; क्योंकि यह कारण सृष्टिसे रहित है।

इसलिये इस देही (परमात्मतत्व) को अच्छेद्य, अशोष्य, नित्य, सनातन, अविकार्य आदि, जान लेने पर शोक हो ही नहीं सकता।

श्लोक का परिपेक्ष्य:

प्रशन:

परमात्मतत्व की वर्णनात्मक परिभाषा नहीं दी जा सकती और परमात्मतत्व इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि से जाना नहीं जा सकता, ऐसा भगवान पूर्व श्लोकों में कह चुके है। तो साधारण मनुष्य को परमात्मतत्व का ज्ञान कैसे हो?

उत्तर:

परमात्मतत्व के ज्ञाता होने की जो प्रक्रिया है, इसको श्रीमद भागवत गीता में विस्तार से कहा गया है। इसको, निश्चय बुद्धि, विज्ञान, विवेक जाग्रति, अभ्यास, भाव में समता, एवं समर्पण के द्वारा, प्राप्त कर्तव्य को करने से, प्राप्त करने की शिक्षा श्रीमद भागवत गीता में दी गयी है।

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