श्रीमद भगवद गीता : २९

सांख्ययोग – आश्चर्य में देखने, वर्णन एवं श्रवण करने पर भी शरीरी दुर्विज्ञेय (जान नहीं पाता) है

 

आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन

माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः।

आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रृणोति

             श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्।।२-२९।।

 

कोई इस परमात्मतत्व को आश्चर्य से देखता है; कोई इसके विषय को आश्चर्य से वर्णन करता है; तथा अन्य कोई इसको आश्चर्य से श्रवण करता है। परन्तु फिर भी कोई इसको जान नहीं पाता, कारण कि यह परमात्मतत्व दुर्विज्ञेय है। ||२-२९||

भावार्थ:

युग-युगान्तर से मनुष्य ब्रह्माण्ड की रचना और उसके क्रिया शील होने को लेकर विस्मित होता रहा है। वह क्या शक्ति है, तत्व है जिसके कारण सृष्टि क्रियाशील है।

अतः भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि विद्वान् लोग परमात्मतत्व को अलग-अलग प्रकार से जानने की कोशिश करते है। जानकर विभिन प्रकार से उसका वर्णन करते है और सुनने वाले विभिन प्रकार से सुने हुए का अर्थ लेते है। परन्तु योग स्थित योगी ही इसको तत्व से जान पाते है, अनुभव करते है।

श्लोक के सन्दर्भ मे:

अध्याय २ श्लोक १८ में परमात्मतत्व को ‘अप्रमेय‘ पद से परिभाषित किया गया है। अध्याय २ श्लोक २५ में भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि परमात्मतत्व अव्यक्त और अचिन्त्य है।

इसलिये जो विषय (परमात्मतत्व) अप्रमेय, अव्यक्त, अचिन्त्य है, वह मनुष्य के लिये आश्चर्य स्वरूप होना ही है।

 

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