श्रीमद भगवद गीता : ३१

स्वधर्म के पालन से अधिक कल्याण कारक कोई कार्य नहीं।

 

स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि।

धर्म्याद्धि युद्धाछ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते।।२-३१।।

 

अपने स्वधर्म को देखकर भी तुमको अपने कर्तव्य-कर्म से विचलित होना उचित नहीं है, क्योंकि धर्मयुक्त युद्ध से बढ़कर कोई दूसरा कल्याणकारक कर्त्तव्य क्षत्रिय के लिये नहीं है। ||२-३१||

भावार्थ:

भगवान्  श्रीकृष्ण इस श्लोक में कहते है कि हे अर्जुन क्षत्रिय होने के कारण समाज कल्याण के लिये युद्ध करना तुम्हारा कर्तव्य है, स्वधर्म है। अपने धर्म पालन हेतु तुम्हें अपने कर्तव्य से विचलित नहीं होना चाहिये।

अध्याय १ श्लोक ३१ में अर्जुन कहते हैं: – मैं युद्ध करने में अपना कल्याण नहीं देखता हूँ। इस के उत्तर में भगवान् कहते हैं – क्षत्रिय के लिये धर्ममय युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई कल्याण का साधन नहीं है।

अध्याय १ श्लोक ४० में अर्जुन कहते हैं – युद्ध करने से, परिणाम में धर्म का नाश होगा।  इस के उत्तर में भगवान् कहते हैं – युद्ध करना ही तेरा धर्म है। क्षत्रिय के लिये युद्ध न करना धर्म की अवेहलना होगी।

श्लोक के सन्दर्भ मे:

सनातन धर्म में मनुष्य के लिये जो कर्तव्य कहे गये हैं वह मनुष्य का धर्म है। मनुष्य की जिस कार्य को करने मे कुशलता होती है, उसको मनुष्य का वर्णोचित स्वधर्म कहा गया है।

जैसे कोई वज्ञानिक है तो उसका स्वधर्म वैज्ञानिक अनुसंधान-शोध करना है।

किसान का स्वधर्म खेती करना है।

चिकित्सक का स्वधर्म रोगी की चिकित्सा करना है।

अध्यापक- आचार्य  का स्वधर्म  शिक्षा प्रदान करना है।

लुहार का स्वधर्म अस्त्र-शस्त्र आदि का उत्पादन करना है।

सैनिक का स्वधर्म राज्य की सुरक्षा करना है।

राजा का स्वधर्म,  राज्य की सुरक्षा और नागरिको के कल्याण के लिए कार्य करना।

इस प्रकार अनेक कार्य है, जो अलग-अलग मनुष्य के अलग-अलग स्वधर्म है।

मनुष्य की जिस कार्य में कुशलता है उसको समाज कल्याण के लिये करना मनुष्य का कर्तव्य है। इस कारण से ही सनातन धर्म में इसको मनुष्य का स्वधर्म कहा गया है। स्वधर्म का पालन स्वयं और समाज के लिये कल्याण करने वाला होता है।

श्लोक का परिपेक्ष्य:

परन्तु स्वधर्म का पालन स्वयं की कामना, भोग, और अहंकार पूर्ति के लिये नहीं होना चाहिये। स्वधर्म का पालन समाज कल्याण के लिये होना चाहिये। स्वधर्म को एक व्यवसाय मान अर्थ के लिये करना कर करना अधर्म है।

स्वधर्म का पालन करने से जो फल और अर्थ कि प्राप्ति होती है उसको केवल अपने निर्वाह के लिए ही प्रयोग मे लाना चाहिए।

सनातन धर्म पालन हेतु:

मनुष्य को अपने स्वधर्म का पालन स्वार्थ, अभिमान, फलेच्छा और भोगेच्छा का त्याग करके दूसरे के हित के लिये करना चाहिए।

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