भावार्थ:
जब मनुष्य प्रकृत्ति-समाज कल्याण के लिये कार्य करता है, तब वह श्रेष्ठ पुरुष कहा जाता है (अध्याय २ श्लोक ३३)। ऐसा करना मनुष्य का कर्तव्य पालन होता है, धर्म पालन होता है। धर्म का पालन करने वाला मनुष्य, समाज में सम्मानित दृष्टि से देखे जाते है, और उसकी समाज में कीर्ति बढ़ती है।
इस के विपरित जो मनुष्य अपने कर्तव्य से विमुख हो जाता है, अधर्म पूर्ण कार्य करता है, उसका समाज में सम्मान नहीं रहता और अपकीर्ति भी बढ़ती है।
मनुष्य के अन्दर अहम-अहंकार, सबसे बड़ा विकार है। जब यह वृति बहुत अधिक हो जाती है तब, मनुष्य स्वयं के जीवन से अधिक महत्ता अहम को दे देता है। इसलिये भगवान् श्रीकृष्ण कहते है कि अपकीर्ति बढ़ने पर वह मृत्यु के भय से बढ़कर अधिक दुःखदायी होती है।
श्लोक का परिपेक्ष्य:
कीर्ति से अहम-अहंकार का बढ़ना, परमात्मा प्राप्ति में बाधक है। परन्तु धर्म का पालन करना, परमात्मा प्राप्ति के लिये अनिवार्य है। धर्म का पालन करना मनुष्य के लिये प्रथम प्राथमिकता है, चाहे फिर वह कार्य कीर्ति के उद्देश्य से ही क्यों न किया गया हो। प्रकृत्ति-समाज कल्याण के लिये कार्य करने से कीर्ति होती ही है और उससे अहंकार उत्त्पन्न होता ही है। अहंकार का त्याग करने के लिये समाज का कल्याण न करना बहुत अधिक हानि कारक है।
अध्याय ३ श्लोक २६ में महापुरषों को आज्ञा दी गयी है कि वह स्वयं भी समाज कल्याण के लिये कार्य करे और अन्य मनुष्यों से भी कराये। चाहे उसका उद्देश्य कुछ भी हो।
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]
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