श्रीमद भगवद गीता : ३७

स्वधर्म – युद्ध में मृत्यु होने से स्वर्ग प्राप्ति; जीतकर पृथ्वी सुख का भोग

 

हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।

तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः।। २-३७।।

 

या तो युद्ध में मरकर तुम स्वर्ग को प्राप्त करोगे, या युद्धमें जीतकर पृथ्वी का सुःख भोगोगे; अतः हे कौन्तेय! युद्ध का निश्चय कर तुम खड़े हो जाओ। ||२-३७||

भावार्थ:

अध्याय २ श्लोक ६ में अर्जुन ने कहा था कि हम लोगों को इसका भी पता नहीं है, कि युद्ध में हम उनको जीतेंगे या वे हमको जीतेंगे। अर्जुनके इस सन्देहको लेकर भगवान् यहाँ स्पष्ट कहते हैं कि अगर युद्धमें तुम कर्ण आदिके द्वारा मारे जाओगे तो कर्तव्य का पालन करते हुए वीरगति को प्राप्त होंगे, और अगर युद्ध में तुम्हारी जीत हो जायगी तो यहाँ पृथ्वी पर राज्य का सुख भोगों गे।

अध्याय १ श्लोक ४० में अर्जुन कहते हैं – युद्ध के परिणाम में नरक की प्राप्ति होगी। इस के उत्तर में भगवान् कहते हैं – युद्ध करने से स्वर्गकी प्राप्ति होगी।

श्लोक का परिपेक्ष्य:

मनुष्य जीवन को उद्देश्य पृथ्वी का भोग भोगने का नहीं होना चाहिये ऐसी शिक्षा भगवान् श्रीकृष्ण ने पूर्ण गीता में स्पष्टा से कई बार दी है। फिर प्रश्न उठता है कि इस श्लोक में राज्य का सुख भोगने को क्यों कहा गया है।

इसके दो करण है।

प्रथम : बड़े उद्देश्य की प्राप्ति के लिये कई बार मनुष्य को उसकी ही भाषा में समझाना पड़ता है। भगवान् श्रीकृष्ण के लिये, समाज में फहले हुए अधर्म का नाश करने के लिये युद्ध का होना अनिवार्य था। भगवान् श्रीकृष्ण लिये यह एक विकट परिस्थिति थी कि युद्ध शुरू होने से पूर्व अर्जुन शोकाकुल होकर युद्ध न करने का निश्चय कर लेते है। अतः भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को युद्ध करने के लिये प्ररित किसी भी प्रकार करना चाहते थे।

दूसरा : धर्म की स्थापना पुरे समाज के किये कल्याण करने वाली थी और भोग की वृति केवल एक मनुष्य के लिये थी, जिसको भगवान् श्रीकृष्ण मानते थे, की, सखा होने के नाते अर्जुन की भोग वृति को वह युद्ध उपरान्त समाप्त करने में अर्जुन की साहयता कर सकते थे।

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