भावार्थ:
अध्याय २ श्लोक ४ – अर्जुन कहते है:
अध्याय १ में अर्जुन ने युद्ध न करने के विषय में अनेक प्रकार की युक्तियाँ दी। परन्तु उन युक्तियों का कुछ भी आदर न करते हुए भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन के आत्मसम्मान पर अघात किया।
भगवान श्रीकृष्ण ने नपुंसकता का दोष लगाया और युद्ध के लिये खड़े हो जाने की आज्ञा दी।
अर्जुन उत्तेजित होकर कहते है कि हे मधुसूदन! मैं कायरता के कारण युद्ध से विमुख नहीं हो रहा हूँ। प्रत्युत धर्म के पालन हेतु युद्ध से विमुख हो रहा हूँ!
सम्बन्ध में बड़े होने के नाते पितामह भीष्म और आचार्य द्रोण – ये दोनों ही आदरणीय और पूजनीय हैं। हे अरिसूदन! आप जरा सोचें कि मैं उन पर बाणों से कैसे प्रहार करूँ?
श्लोक के सन्दर्भ मे:
मधु और अरि – दुष्ट स्वभाव वाले, अधर्मी और संसार को कष्ट देने वाले ये दो दैत्य थे, जिनका भगवान श्रीकृष्ण ने वध किया था।
अर्जुन, भगवान श्रीकृष्ण को मधुसूदन’ और ‘अरिसूदन नाम से सम्बोधित करते है। मानो यह कहना चाहा रहे को कि, अपने जिनका वध किया था, वह दुष्ट, दैत्ये थे। परन्तु मेरे सामने तो पितामह भीष्म और आचार्य द्रोण खड़े हैं, जिनका आचरण सर्वथा श्रेष्ठ रहा हैं।
पितामह भीष्म ने मेरे पर अत्यधिक स्नेह रखा हैं। बचपन में जब मैं उनको ‘पिताजी-पिताजी’ कहता, तब वे प्यार से कहते कि ‘मैं तो तेरे पिताका भी पिता हूँ!’ इस तरह वे मेरे पर बड़ा ही प्यार, स्नेह रखते आये हैं।
आचार्य द्रोण ने मेरे को शिक्षा देने में विशेष कृपा रखी है। उनका मेरे पर इतना स्नेह है कि उन्होंने अपने पुत्र अश्वत्थामा को भी मेरे समान नहीं पढ़ाया। उन्होंने ब्रह्मास्त्र को चलाना तो दोनों को सिखाया, पर ब्रह्मास्त्र का उपसंहार करना मेरे को ही सिखाया, अपने पुत्रको नहीं। उन्होंने मेरे को यह वरदान भी दिया है कि “मेरे शिष्यों में अस्त्र-शस्त्र-कला में तुम्हारे से अधिक प्रतिभाशाली दूसरा कोई नहीं होगा”।
श्लोक का परिपेक्ष्य:
अर्जुन का युद्ध से उपरीत होना अकर्तव्य पूर्ण कार्य है। कारण की यह युद्ध दो व्यक्तियों के मध्य वैयत्तिक वैमनस्य के कारण नहीं हो रहा है। दुर्योधन अधर्म की नीति को अपनाकर युद्ध के लिये तत्पर हैं। तो दूसरी ओर पाण्डव धर्म नीति के पालन हेतु युद्ध लिये खड़े हैं।
युद्ध में अर्जुन का पाण्डव सेना से पृथक् कोई अस्तित्व नहीं है और न ही भीष्म और द्रोण का दुर्योधन सेना से पृथक् कोई अस्तित्व हैं।
अर्जुन अपने आप को द्रोण के शिष्य और भीष्म के पौत्र के रूप में देखते है। जबकि गुरु द्रोण और पितामह भीष्म अर्जुन को प्रतिदून्दी के रूप में देखते हुए युद्ध में खड़े थे। अर्जुन को यह अधिकार नहीं था कि वह अधर्म के पक्षधरों में से किसी व्यक्ति विशेष को सम्मान देने के लिये वह आग्रह करे।
अर्जुन सम्पूर्ण परिस्थिति को अहंकारपूर्ण दृष्टिकोण से भी देखते है। अध्याय १ श्लोक २१ जब अर्जुन निरीक्षण पद का प्रयोग करते है तब ऐसा लगता है की अर्जुन आत्मविश्वास से पूर्ण है। परन्तु जब वह युद्ध करने से इंकार करते है तब उनका अहंकार झलकता है। अर्जुन पाण्डव सेना का एक योद्धा मात्र ही है, परन्तु वह मानते है कि, युद्ध करने अथवा न करने का नेतृत्व उनको ही प्राप्त है।
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]
Read MoreTo give feedback write to info@standupbharat.in
Copyright © standupbharat 2024 | Copyright © Bhagavad Geeta – Jan Kalyan Stotr 2024