श्रीमद भगवद गीता : ४१

अध्याय २ श्लोक ४१

 

व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन।

बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्।।२-४१।।

 

हे कुरुनन्दन! समता को धारण करने के विषय पर तुम व्यवसायात्मिका (एक निश्चयात्मक) बुद्धि करो। अन्यथा, मनुष्य की अव्यवसायी बुद्धि में अनन्त कामनायेँ होती हैं और उन कामनाओं की अनेक शाखाएँ होती हैं। ||२-४१||

 

भावार्थ:

 

अध्याय २ श्लोक ३९ में भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि समता को धारण करने से, मनुष्य के कार्य वृत्तियों के बन्धन से मुक्त होते है। अध्याय २ श्लोक ४० में कहते है कि बुद्धि में समता रहने से, मनुष्य भय रहित हो जाता है।

अतः इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि समता को धारण करने के लिये तुम संसार की कामना का त्याग कर केवल समता प्राप्ति की कामना करो। अर्थात “मुझे समता को प्राप्त करना है और उसके लिये साधना करनी है” ऐसा बुद्धि में दृढ़ निश्चय करो।

समता प्राप्ति के लिये दृढ़ निश्चय नहीं होगा तो, बुद्धि में अनेक प्रकार की कामनायें उत्पन्न होती रहेगी। और उन कामनाओं से अनेक प्रकार की अन्य वृत्तियाँ उत्पन्न होती रहेगी। अन्तःकरण की यह वृत्तियाँ समता को धारण करने में सबसे विशाल और एकमात्र बाधा है।

जब तक यह वृत्तियाँ है तब तक समता को धारण नहीं किया जा सकता। कारण की वृतियों का न होना ही समता की प्राप्ति है। अतः तुम समता को धारण और कामनाओं का त्याग करने के लिये दृढ़ संकल्प लो और उसके लिये साधना करो।

 

श्लोक के सन्दर्भ मे:

अन्य शब्दो में कामना के रूप में तुम केवल समता प्राप्ति की कामना करो। अन्यथा संसारिक कामनायें तो अनन्त है, और वह तुम्हारी समता प्राप्ति की कामना को पूर्ण नहीं होने देगी। और इस प्रकार मनुष्य इन कामनाओं की पूर्ति में व्यस्त हो कर अपने जीवन को नष्ट कर देता है।

केवल समता प्राप्ति की कामना को लेकर एक निश्चित बुद्धि करना व्यवसायात्मिका बुद्धि कहलाती है।

अनेक एवं अनन्त कामनाओं वाली बुद्धि को अव्यवसायी बुद्धि कहते है।

 

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