वेदों में संसारिक सम्पदा को प्राप्त करने के लिये और अनेक प्रकार से संसारिक कार्यों की सिद्धि के लिये यज्ञ विधि कही गई है।
अल्पबुद्धि-अविवेकी वाले इन यज्ञ विधियों को भोग और स्वर्ग प्राप्ति के लिये मानते है। अपना यह विचार, वह इतनी शोभित एवं रमणीय वाणी से कहते है की उनका कथन सत्य लगता है।
भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि :
कामना ही जिनके अन्तःकरण में रचा-बसा है।
स्वर्ग की प्राप्ति ही जिनके जन्म का उद्देश्य है।
उत्तम फल, भोग और ऐश्वर्य ही जिनके कर्म करने का उद्देश्य है।
ऐसे मनुष्य अनेक और विविध प्रकार के कार्य करते है। वह एक कामना पूर्ति के लिये कार्य करते है और फल प्राप्ति के उपरान्त उनमें नवीन कामना उत्पन्न हो जाती है। नवीन कामना की पूर्ति के लिये नवीन कार्य करते है। और इस प्रकार जीवन भर यह कर्म चलता रहता है और वह कर्म-फल-कर्म के चक्र में बंधे रहते है।
वास्तव में वेदों में जो यज्ञ विधि कही गई है, उनका उद्श्य है, मनुष्य द्वारा अपने कर्तव्य की पूर्ति करना। उन यज्ञ विधि का प्रयोग समाज कल्याण के लिये करना।
कामना में प्रीति रखने वाले मनुष्य को अपने में और कामना में भिन्नता ही नहीं दिखती।
उनका तो यही भाव होता है कि कामनाओं के बिना मनुष्य जीवन व्यतीत ही नहीं कर सकता। कामना ही मनुष्य के लिये कार्य को करने का प्रेरणा स्रोत है।
मनुष्य में कामना नहीं होगी तो मनुष्य कार्य ही क्यों करेगा। कामना के बिना मनुष्य पत्थर की तरह जड़ हो जायेगा, और जीवन व्यर्थ हो जायेगा।
इस के विपरीत मनुष्य यह नहीं जान पाता कि, भोग और ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये परिस्तिथि, क्षमता, के अनुसार अनेक प्रकार की विधियाँ होती हैं। उत्तम विधि को लेकर अनेक तरह की क्रियाएँ करनी पड़ती हैं। अनेक तरह के पदार्थों की जरूरत पड़ती है एवं शरीर से परिश्रम भी करना पड़ता है।
और अगर विधियों, क्रियाओं, पदार्थों और शरीर के परिश्रम में कमी रह जाय तो कामना की पूर्ति नहीं होती। मनुष्य को यह तो ज्ञात हो नहीं पाता कि कमी कहा रह गयी, परन्तु कामना पूर्ति न होने पर उसको दुःख होता है।
कामना पूर्ति होने पर उसके वियोग का भय होता है और वियोग होने पर पुनः दुःख होता है। और इस प्रकार मनुष्य इन दुःखों के चक्र में उलझा रहता है और जीवन समाप्त हो जाता है।
भगवान श्रीकृष्ण ने इस श्लोक मे स्पष्ट शब्दों से उन मनुष्यों की निन्दा की है जो भोग-कामनाओं में ही तन्मय रहते है, और स्वर्ग के भोगों के लिये स्वर्ग प्राप्ति को अपने जीवन का उद्देश्य मानते है। ऐसे मनुष्यों को भगवान श्रीकृष्ण ने विवेकहीन, अल्पबुद्धिवाले पदों से सम्बोधित किया है।
अतः मनुष्य को भोग-कामनाओं में लिप्त होकर जीवन नष्ट करना नहीं चाहिये।
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