श्रीमद भगवद गीता : ४५

अध्याय २ श्लोक ४५

 

त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।

निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्।।२-४५।।

 

हे अर्जुन! वेदों में जो तीन गुणों का वर्णन मिलता है, उस त्रिगुण को तुम अपने आधीन करो। सत-असत के मध्य हो रहे द्वन्द्वों से रहित हो, सत में स्थिर हो जाओं। तुम योगक्षेम का विचार त्याग कर और केवल समता को अन्तःकरण में धारण करने के लिये कार्य करो। ||२-४५||

 

भावार्थ:

त्रिगुण को अपने आधीन करो

अध्याय २ श्लोक ४२ में वर्णन हुआ है जो अल्पबुद्धि, कामना में तन्मय रहते है, वह यह मानते है की वेदों में उत्तम कर्मफल, भोग, ऐश्वर्य, और स्वर्ग प्राप्ति के विषय कहे गये है।

इस विषय पर भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में कहते है कि, वेदों में त्रिगुण के विषय में वर्णन हुआ है। यह त्रिगुण (सत्व, रज, तम) जो मनुष्य को प्रकृति से प्राप्त है।

संसार के विषयों के प्रति उत्पन्न होने वाला, आकर्षण, कामना और भोग का कारण त्रिगुण है। त्रिगुण के प्रभाव में ही मनुष्य संसार के विषयों से अपना सम्बन्ध मान कर उनकी कामना करता है और भोग लेता है।

अतः भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि है अर्जुन तुम त्रिगुण को अपने आधीन करो। तीनों गुणों के प्रभाव से अपने को प्रभावित मत होने दो। अर्थात त्रिगुण के कारण अन्तःकरण में उत्पन्न होने वाली वृत्तियाँ को नियमित करो।

द्वन्द्व से रहित होकर समता को स्थिर करो

संसार के विषय अनित्य, विनाशी, कभी एक सामान नहीं रहते। इन विषयों से सम्बन्ध मान कर अन्तःकरण में उत्पन्न होने वाले भाव भी अनित्य है। इसके विपरीत इन विषयों से सम्बन्ध का त्याग करने से अन्तःकरण में जो रह जाता है, वह समता का भाव है। समता का भाव स्थिर हो जाने पर यह भाव नित्य रहने वाला है।

मनुष्य कभी कामना का त्याग कर समता प्राप्ति का निश्चय करता है। और तुरन्त ही संसारिक विषयों के प्रति आकर्षित हो उनको प्राप्त करने की कामना कर लेता है। कभी कामना करना और कभी कामना का त्याग करना, इस प्रकार मनुष्य के अन्तःकरण में द्वन्द्व चलता रहता है।

अध्याय २ श्लोक ४१ में भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि, अर्जुन तुम समता प्राप्ति के लिये दृढ़ निश्चय करो। अन्यथा कामना निरन्तर उत्पन्न होती रहेगी।

अब इस श्लोक में कहते है, कि तुम निर्द्वन्द्व हो जाओ और नित्य रहने वाला समता को स्थिर करो।

योगक्षेम

मनुष्य जब कामना का त्याग करता है, तब, भविष्य में प्राप्त होने वाले सुख का त्याग तुरन्त हो जाता है। परन्तु समता को स्थिर करने के लिये जो योग साधना की जाती है उसकी सिद्धि में समय लगता है। तब मनुष्य का भाव होता है की पता नहीं समता की प्राप्त होगी, की नहीं। इस पर भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि, अर्जुन तुम योग की सिद्धि-असिद्धि का विचार मत करो। केवल समता को अन्तःकरण में धारण करने के लिये कार्य करो।

 

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