श्रीमद भगवद गीता : ४६

अध्याय २ श्लोक ४६

 

यावानर्थ उदपाने सर्वतः संप्लुतोदके।

तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः।।२-४६।।

 

जिस प्रकार महान् जलाशय के प्राप्त होनेपर मनुष्य का छोटे जलाशय में कुछ भी प्रयोजन नहीं रहता। उसी प्रकार वेद ज्ञाता को परमानन्द (ब्रह्मा) की प्राप्ति होने पर संसारिक भोगों से कुछ भी प्रयोजन नहीं रहता। ||२-४६||

 

भावार्थ:

सुख की इच्छा से, मनुष्य कभी संसारिक विषय को प्राप्त करने की कामना करता है और कभी समता प्राप्ति का निश्चय करता है। इस प्रकार मनुष्य का द्वन्द्व चलता रहता है। इस द्वन्द्व से रहित होने के लिये भगवान श्रीकृष्ण जलाशय की उपमा देते है।

मनुष्य को जल की प्यास निरन्तर लगती रहती है। उसी प्रकार मनुष्य आनन्द की प्राप्ति की ओर निरन्तर अग्रसर रहता है। जिस प्रकार जल के प्यासे को महान् जलाशय की प्राप्ति हो जाय तो उसके लिये छोटे जलाशय का कोई महत्व नहीं रह जाता। उसी प्रकार ब्रह्म (परमानन्द) प्राप्ति होने पर मनुष्य के लिये संसारिक विषयों का सुख का कोई  महत्व नहीं रह जाता।

कारण की संसारिक पदार्थों की प्राप्ति होने पर सुख अल्प मात्रा में और स्वल्प अवधि के लिये रहता है। इसलिये मनुष्य सुख के बने रहने के लिये, एक के बाद एक, अनेक कामनायें करता जाता है।

इस के विपरीत समता की प्राप्ति होने पर परमानन्द निरन्तर बना रहता है।

वेदों में तत्व ज्ञान क्या है, परमानन्द की प्राप्ति किस प्रकार है, इसका वर्णन विस्तार से किये गया है। जो ज्ञाता इस मूल तत्व ज्ञान को जानता है, अर्थात अनुभव किया है।  उसको संसारिक विषयों (भोगों) से कुछ भी प्रयोजन नहीं रहता।

अतः जो वेद (परमात्मतत्व) का पूर्ण रूप से ज्ञाता है, वह जानता है कि अनन्त परमानन्द की प्राप्ति होने के उपरान्त संसारिक सुख की प्राप्ति बहुत स्वल्प है और उनका कोई महत्व नहीं। अतः वह वेदों में कहे गये, मनुष्य धर्म का पालन परमानन्द प्राप्ति के लिये करता है।

 

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